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विचारधारा चले, बाहर आंखें लाल हों, या आंखें ऊंची चढ जायं, ४मुह बिगड़े मुह आवेश वाला हो होठ कांपने लगें "चाहे जैसे ककश शब्द या गाली बोले जायं, मारने के लिए हाथ ऊंचा किया जाय . इत्यादि यह सब क्रोध का फल है। यह कुछ भी न होने दें, तो क्रोध को निष्फल बनाया कहा जा सकता है। इसके लिए भी इस तरह सोचना चाहिये ।
चार कषायों के त्याग के लिए विचारधारा १. क्रोध के उदय का निरोध तथा उदीर्ण क्रोध का निष्फलोकरणः इसके लिए इस तरह से सोचें:
(१) 'जीव ! ध्यान रखना; यह बाहर का बिगड़ा हैं या बिगड़ेगा, वह तो तेरे अशुभ कर्मों के कारण; परन्तु अब क्रोध कर के तू अपनी आत्मा का परलोक मत बिगाड़ना। वह तो तेरे हाथ में नहीं था, यह तो तेरे हाथ में है । (२) क्रोध करने से सामने वाले का क्रोध बढ कर आग भभक जावेगी, इससे हानि बढती है । (३) 'सव्वे जीवा कम्मवस' के अनुसार वह तो बिचारा कर्मवश है याने कर्म के पराधीन है। उस पर गुस्सा क्या करना ? वह तो दयापात्र है। अतः उसकी करुणा करने जैसी है, उस पर गुस्सा करने जैसा नहीं है। क्योंकि यों भी वह अयोग्य आचरण करने से कर्म का मार खायेगा । तो फिर उस पर ज्यादा जुल्म क्या करना? (४) मेरा बाहर का बिगड़ा वह तो पर का बिगड़ा, अपनी आत्मा का कुछ भी बिगड़ा नहीं। उसका पुण्य, उसका धर्म और उनकी सत्तागत अनन्त ज्ञानादि-समृद्धि तो जो है, वह है ही। उसमें से सामने वाला कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता। तो फिर क्रोध क्यों करना ? (५) क्रोध करने से महावीर प्रभु के सन्तानत्व को कलंक लगता है । (६) अनमोल जिनशासन की प्राप्ति निष्फल हो जाती है।