________________
( २४० )
अह खंति मद्दवज्जव मुत्तीओ जिणमयप्पहाणाओ । आलंबणाई जेहिं सुक्कज्जाणं समारुहई ॥६९।। - अर्थ:- अब आसन द्वार के बाद ) जिन मत में मुख्य क्षम मृदुता ऋजुता निर्लोभता ने आलम्बन हैं। इससे शुक्ल ध्यान पर चढते हैं।
उत्तर-भूत-शील-संयम-रक्तता तक के सम्पूर्ण लिंग तो अप्रमत्त मुनि का होते हैं । इस हिसाब से नीचे के गुणस्थानक वालों कोधर्मध्यान मुख्यतः नहीं हो सकता। तब भी उपरोक्त श्रद्धादि अमुक लिंगों के अनुसार प्रमत्त मुनि को भी धर्मध्यान गौण रूप से आ सकता है। इससे नीचे के समकिती श्रावक को अविरति होने से आध्यान में उसका ज्यादा खिचाव रहता है । अतः उन्हें आर्त की अपेक्षा धर्मध्यान बहत ही अल्प जैसा होता है । यह लिंग द्वार हुआ। ___ अब 'फल' कहने का समय आया। पर लाघव के हेतु से । थोड़ा लिखना पड़े इसलिए ) शुक्ल ध्यान के फल के अधिकार के वक्त ही वह भी कहेंगे। इसके अलावा बाकी धर्मध्यान का विचार यहां पूर्ण हुआ।
४. शुक्ल ध्यान अब शुक्ल ध्यान का वर्णन करने का समय है। शुक्ल शब्द की व्युत्पत्ति प्रारम्भ में कही है। शोक को नष्ट करे वह शुक्ल । इस शुक्ल ध्यान में भी 'साधना' से लेकर 'फल' तक के १२ द्वारों से वर्णन किया गया है, विचार किया गया है। इनमें से भावना, देश, काल तथा आसन द्वारों में धर्मध्यान से कोई फर्क नहीं है। अत: यहां उनका पुनः विचार नहीं किया जाता। उनको छोड़ कर यहां आलम्बन द्वार कहते हैं: