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भी वहां धर्मध्यान नहीं होगा। वस्तुतः पहले मूल में श्रद्धा होनी चाहिये । वह हो तभी समझा जायगा कि वहां धर्मध्यान है :
धर्मध्यान के दूसरे चिह्न विवेचन :
जिसके चित्त में धर्मध्यान प्रवर्तित हो, वह इन दूसरे चिह्नों से भी जाना जा सकता है। (१) पहला चिन्ह तो ऊपर कहा वैसे जिनोक्त भावों की श्रद्धा है । (२) धर्मध्यानी जिनेश्वर भगवान और निग्रन्थ मुनियों के गुणों का कीर्तन प्रशंसा करता हो। इसमें (i) गुणों का नाम आदि ले कर कथन विवेचन करना वह कीर्तन; उदा० भगवान के ३४ अतिशय ऐसे ऐसे होते हैं। यह गिनाना कीर्तन है। और (ii) श्लाघ्य के रूप में भक्तिपूर्वक स्तुति करनी प्रशंसा है । दिल में उनकी ओर भक्ति उभर जाय और बोला जाय 'अहो ! प्रभु का कैसा निरतिचार सम्यग् दर्शन, सम्यक् चारित्र ! कैसे उपसर्ग सहे ! साधु महाराज की कैसी सम्यक् श्रद्धा और उसके साथ तप संयम की साधना !' इस तरह कीर्तन प्रशंसा करता हो।
(३) इसी तरह (i) विचरते हुए जिनेन्द्र भगवान को आहारादि भावपूर्वक दान करे। (ii) स्थापना जिन की स्वशक्ति के लायक उत्तम द्रव्य से भक्ति पूजा करता हो । iii) साधु साध्वी को आहार, वस्त्र, पात्र, मुकाम आदि का दान करता हो।
(४) देवगुरु का विनय करे। (i) भगवान पधारें तो सामने जाय, (ii) भगवान के पास जाते वक्त सचित्त (स्व उपभोग में लेने के खान पानादि) द्रव्य का त्याग करके जाय तथा (iii) अचित्त (प्रभु की पूजा में रखने योग्य पुष्प फलादि) लेकर जाय । (iv) उत्तरासंग ओढ़ कर जाय; (v) प्रभु को देखकर वहीं से अंजलि जोड़ कर सिर नवा कर 'नमो जिणाणं' बोले (vi) देवदर्शनादि में