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जिणसाहू गुण कित्तण पसंसणा - विणयाण संपण्णो । सुअ - सील-संजमरओ धम्मज्झाणी मुणेयव्वो ॥ ६८ ॥
अर्थ :- जिनेन्द्र तीर्थंकर देव तथा मुनियों के ( निरतिचार सम्यग् दर्शन आदि ) गुणों का कथन, भक्ति पूर्वक स्तुति, विनय, उन्हें ( आहारादि का ) दान, इनसे संपन्न और जिनागम, व्रत, संयम (अहिंसादि) में भाव से रक्त धर्मध्यानी होता है यह जानें।
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३. आज्ञा : जिनागम में जो 'आज्ञप्यन्ते' याने आज्ञा फरमाई जाती हैं वे जीवादि पदार्थ यही आज्ञा इनसे श्रद्धा होती है अर्थात् (१) इन पदार्थों को वास्तविक व्यवस्था देख कर ही श्रद्धा हो जाती है अथवा (२) जगत के पदर्थों का व्यवस्थित विचार करते करते मिथ्यात्व कर्म का ऐसा क्षयोपशम हो जाए कि जिससे बराबर जिनोक्त तत्त्व की श्रद्धा हो जाती है । वल्कलचीरी को तापसअवस्था में बर्तनों की प्रमार्जना करते करते जिनोक्त संयम - मार्ग के पात्र आदि के पडिलेहन आदि की श्रद्धा हो गई । उसमें भावना पर चढते हुए पराकाष्ठा पर पहुंच गये जिससे केवलज्ञान हो गया ।
४. निसर्ग याने स्वभाव : स्वाभविक रूप से मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के टूटते जाने से उसका क्षयोपशम हो जाय और जिनोक्त तत्त्व की श्रद्धा प्रकट हो ; यह निसर्ग से सम्यग् दर्शन हुआ कहा जाता है । किसी जीव विशेष को वैसे निर्मल भावोल्लास से भाव की विशुद्धि बढने से ऐसा होता है ।
उपरोक्त चारों में से किसी भी कारण से जिनोक्त तत्त्वों की श्रद्धा की जाती हो तो वह धमध्यान का लिंग हैं । विद्वत्ता कितनी ही हो, नौ पूर्व तक का ज्ञान हो, किन्तु यदि यह श्रद्धा ही नहीं, तो विपाक, संस्थान आदि के विचार चाहे कितने ही बाल दिखावे, तब