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चले जाने वाले हैं, इत्यादि भावना बराबर करने से स्वाभाविक ही उन पर की आसक्ति मिटती है । (२) 'अन्यत्व भावना' से अपनी खुद की काया ही अन्य व भिन्न लगने से उस पर से आसक्ति उठ जाती है। इसी तरह बारही भावना से विश्व के समस्त चराचर पदार्थ का पक्षपात याने आसक्ति टूर जाती है, टूटती जाती है । संसार ऐसे सब अनित्य पदार्थों से ही भरा होने से उस पर नफरत होती है, अरुच तथा व्याकुलता होती है। जैसे जैसे आसक्ति हटती जाती है, वैसे वैसे संसार तथा उसके औदयिक भावों पर अलिप्तता बढती जा कर मुनिधमं ध्यान से च्युत होते ही यह लाभ करवाने वाली १२ भावनाओं में अपने मन को पिरोदे तो अनभि. ध्वंग, भवनिर्वेद तथा अनासक्ति बढ कर पुनः एकाग्रता बढ जाने से धर्मध्यान आ जाता है।
प्रश्न- धर्म ध्यान के हटते ही तुरन्त अन्य कुछ मन में न आ कर ये भावना ही किस तरह आ जायं ?
उत्तर-जिसने पहले धर्मध्यान से अन्तःकरण को अच्छी तरह से भावित कर दिया हो उसे इस धर्मध्यान के आज्ञा, अपाय, विपाक व संस्थान विषयों की रमणता ही ऐसी हो जाती है कि उस पर के ध्यानात्मक स्थिर चिंतन को खोने पर उसी में के विषयों पर भावनात्मक विचारधारा चलने लगती है। १२ भावना के विषय धर्मध्यान विषय में समा जाते हैं; अतः ध्यानभग होने पर मन स्वतःउसमें जाता है । मात्र बार बार के चारों प्रकार के धर्मध्यान से चित्त को, दिल को हृदय को भावित कर देना चाहिये । चित्त इसी से पूर्ण रंग जाना चाहिये । यह अनुप्रेक्षाद्वार का विचार हुअा।
लेश्या अब लेश्या द्वार का विचार करते हैं: