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हो नरक आदि गतियों में जान पड़ता है, और अकेले ही शुभ अशुभ कर्म बांधना व भोगना पड़ता है । तो फिर स्वात्मा का शाश्वतकाल का हित साधन भी अकेले हो करना चाहिये । जैसे जन्म या मृत्यु आदि में किसी के सहारे की आशा रखना निष्फल है, इसी तरह स्वात्महित साधन में भी दूसरे की आशा रखना बेकार है । कर्म भोगने में अकेला रहना पड़ता है, अकेले रह सकते हैं, तो आत्महित साधना में अकेले क्यों न रहा जाय ?
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(४) अन्यत्त्व भावना: 'मैं स्वजन कुटुम्बियों से भिन्न हूँ। ऐसे ही परिवार से, वैभव से, तथा काया से भिन्न हूँ । ये सचमुच मैं नहीं या मेरे नहीं हैं, याने मेरी या मेरे मालका की वस्तुएं नहीं हैं । तो फिर मुझे इनमें से किसी चीज का वियोग हो या इसमें कुछ टेढा मेढा हो, तो उसमें शोक खेद किस लिए करना चाहिये ? जैसे कहीं किसी का लड़का मरने पर वह मेरा न होने से मैं रोता नहीं हूँ शोक में मग्न नहीं होता हूं तो फिर जो मेरा माना हुआ है पर सचमुच में तो मेरा नहीं है, उसके मरने पर क्यों शोक करू ? यदि स्वजन शरीर आदि मेरे से बिलकुल अलग न हों तो मरने पर यह सब छोड़कर मुझे अकेला ही क्यों जाना पड़ता है ? अतः मैं इन सब से बिलकुल भिन्न ही हूँ।' इस तरह अन्यत्व की मति जिसे निश्चल हुई, उसे शोक रूपी कलियुग नहीं लगता, या सताता नहीं है । भगवान श्री ऋषभदेव प्रभु के केवलज्ञान होने पर मरुदेवा माता पुत्र को देखने आई, वहां १००० वर्ष के वियोग के बाद पुत्र बुलाता नहीं, उसका शोक ऊभर प्राया, परन्तु वहीं अन्यत्र भाव में चढ़ने से माता को केवलज्ञान प्राप्त हुआ ।
(५) अशुचित्व भावना : 'यह शरीर इसमें डाले हुए अच्छे शुद्ध खानपान आदि को प्रशुचि याने गंदा करने का सामर्थ्य रखता है। साथ ही यह असल में गंदे रजवीर्य से जन्म लेकर