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( २२४ ) 'जहा खरो चंदण भारवाही, भारस्स भागी न हु चंदखस्स ! एवं खु नाणी चरणेण हीणो, भारस्स भागी न हु सुग्गई ए।।'
जैसे चन्दन का बोझ उठाकर ले जाने वाला गधा मात्र बोझ का ही हिस्सेदार होता है, चन्दन की सुवास व शीतलता का नहीं। ( क्योंकि वह तो मात्र यही चाहता है कि वह बोझ कब उत्तरे ? ) इसी तरह चारित्र आचरण रहित ज्ञानी भी बोझ का ही हिस्सेदार है, सद्गति का नहीं। (क्योंकि वह तो इतना ही देखता है कि 'यह ज्ञान कहां पर वाद में उतारकर अपनी चतुराई बताऊं?') ऐसे शास्त्र वचन बताते हैं कि सम्यग् दर्शन और चारित्र बिना नोपूर्व तक का ज्ञान धारण करने वाला भी अज्ञानी ही हैं । इस चारित्र में मुख्य मन वचन काया की गुप्ति याने सम्यक् प्रवृत्ति-निवृत्ति है । इसीसे अभवी तथा भवाभिनंदी जीव के बाह्य रूप से सस्त चारित्रपालन की भी कीमत नहीं है। क्यों कि उसमें मनोगुप्ति ही नहीं हैं । वह चारित्र का भी संसारसुख के उद्देश्य से ही पालन करता है। अतः उसका मन विषय राग से भरा होने से मैला है, सुगुप्त नहीं है। सारांश यह है कि तीन गुप्ति का धारक है वही सच्चा ज्ञानी हैं. विद्वान है । अतः माषतुष जैसे अप्रमत्त मुनि भी विद्वान ही हैं और इसीलिए धर्मध्यान के अधिकारी है।
प्रश्न- श्रावक या प्रमत्त साधु को धर्मध्यान नहीं होता?
उत्तर- शास्त्र कहता है कि छठे 'प्रमत्त संयत' गुणस्थानक तक आर्त्तध्यान की मुख्यता रहती है; क्योंकि प्रमाद दशा में रागादि का जोर रहता है और यह रागादि आर्तध्यान के पोषक हैं। उन्हें कभी धर्मध्यान आ जाय, पर प्रमाद के कारण बहुत टिकता नहीं, धाराबद्ध नहीं चल सकता। प्रमाद के जाने से ही मुख्यतः धर्मध्यान का अधिकारी बना जा सकता है। उसके पहले गौण यानी अभ्यासरूप से धर्मध्यान हो सके।