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पर्यायास्तिक नय की दृष्टि से घटमान प्रात्मा के अनित्यत्व धर्म का इन्कार करने जेसा होता है ।
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न्यायदर्शन, सांख्यदर्शन आदि वैसा करते हैं । वे आत्मा परमाणु आदि को मानते हैं परन्तु एकान्त नित्य मानते हैं । यह मानना भी किस काम का ? उसका कल्पित एकान्त नित्य आत्मा या परमाणु जैसी वस्तु जगत में है ही नहीं । इसीलिए सन्मतिशास्त्र की टीका में विस्तार से युक्तिपूर्वक सिद्ध किया है कि उसके कहे प्रत्येक द्रव्य गुण कर्म आदि पदार्थ गलत हैं । सचमुच में तो वस्तुमात्र में दो अंश है । एक द्रव्यांश दूसरा पर्यायांश । द्रव्यांश याने ध्रुव अंश और पर्यायांश याने अध्रुव अनित्य उत्पत्ति-विनाशशाली अंश । आत्मा का आत्मत्व ध्रुव अंश है और उसका मनुष्यत्व, देवत्व आदि अध्रुव अंश है । मनुष्य या देव के रूप में आत्मा नित्य नहीं कहा जा सकता । उदा० देव से मनुष्य के रूप में उत्पन्न हुआ, वह आत्मा अब देव के रूप में नहीं रहा । उसका देवरूप खतम हुआ । इस तरह पर्यायांश से आत्मा अनित्य हुआ । एक अणु भी उसके पुद्गल रूप के अंश में ध्रुव है, पर जब वह दूसरे अणु के साथ जुड़ जाने से द्वणुक का रूप लेता है तो अब वह अणु नहीं कहलाता । इस तरह से वह अणुत्वांश से नष्ट तथा द्वणुकत्वांश से उत्पन्न हुआ कहा जायगा । इस तरह द्रव्यार्थिक नय तथा पर्यायाथिक नय दोनों का साथ में चितन करें तब पदार्थ को न्याय मिलता है और वह चिंतन यथार्थ गिना जाता है । ऐसे ही दूसरे भी व्यव - हारनय, निश्चयनय, शब्दनय, अर्थनय आदि शास्त्र कथित जीव अजीवादि विस्तार वाले पदार्थों का नयसमूहमय चिंतन करने से धर्मध्यान होता है । यह धर्मध्यान के ध्यातव्य विषय की बात हुई । अब इस ध्यान के ध्याता कौन हैं वह बताते हैं:
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