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वह भी कष-छेद-ताप की परीक्षा सहित करना लाभदायक है, यह सोचना चाहिये । किसी भी शास्त्र को स्वर्ण की तरह (१) कषकसौटी परीक्षा में लाना, याने यह देखना कि इसमें योग्य विधिनिषेध है?' तो जिनागम में उदा० कहा:-'तपस्वाध्याय ध्यान करें।' 'हिंसादि पाप न करें।' (२) छेद परीक्षा के लिए यह देख कि 'इस में विधिनिषेध को जरा भी बाधक न होकर उसके साधक आचार कहे हैं ?' तो उदा० जिनागम में कहा है: 'समिति गुप्ति आदि पंचाचार पालें।' तो इसमें लेश मात्र हिंसा नहीं हैं और ता ध्यानादि विधिपालन की अनुकूलता है। (३) ताप परीक्षा में यह देखें कि 'इसमें विधि निषेध और जिनागम के प्राचार के अनुकूल तत्त्व व्यवस्था है।' तो उदा० अनेकान्तवाद की शली से जीव अजीव द्रव्यो की नित्या नित्यता, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, द्रव्य पर्याय की भेदा भेदता आदि जो तत्त्व-व्यवस्था बताते हैं वह विधि निषेध तथा प्राचार के साथ संगतता वाली है। इस चिंतन से विशिष्ट श्रद्धा याने सम्यग्दर्शन की संगीन दृढता निर्मलता होती है।
इन दसों प्रकार के चितन में जहां मन की स्थिरता होती है कि वह तुरन्त धर्म ध्यान स्वरूप बन जाती हैं। संस्थान-विचय धर्मध्यान में पहले कहा उस तरह विश्व के समस्त पदार्थ विषय बन जाते हैं।
इन पदार्थों का चिंतन सर्व नय समूहम य रूप से करना है, परन्तु एकांत नय की दृष्टि से नहीं। क्योंकि वैसा करने से दूसरे नय से सिद्ध होने वाले धर्म का अपलाप होता है । उदा० अकेले द्रव्यास्तिक नय से आत्मा का विचार करे तो आत्मा नित्य ही लगे। फिर दूसरे