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जाने से तथा चंचल व विह्वल होने से रोका जा सकता है।
५. जीव विचय : जीव का अनादिपन, असंख्य प्रदेशमयता, साकार निराकार उपयोग, किये हुए कर्मों का भोगना, आदि स्वरूप का स्थिर चितन किया जाता है । यह जड़काया आदि पर नहीं किन्तु आत्मा पर ममत्व करवाने में उपयोगी है।
६. अजीव विचय : धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल, उनके गतिसहायकता, स्थितिमहायकता, अवगाहना, वर्तना, परिवर्तन, रूप रसादि गुण तथा अनन्त पर्यायरूपता का चिंतन करना। इससे शोक, रोग, व्याकुलता, नियाणा (निदान) और देहात्म-अभेद का भ्रम आदि दूर होता है।
७. भव विचय : अहो ! कैसा दुःखद यह संसार ! जिसमें (१) स्वकृत कर्म के फल भोगने के लिए बार बार जन्म लेना पड़ता है। रहेंट के चक्र की तरह मल मूत्रादि अशुचि भरे माता के पेट के खड्डे में कई बार गमन आगमन करना पड़ता है; और (२, स्वकृत कर्म के दारुण दुःख भरे भोगों में कोई मदद नहीं करता; तथा (३) संसार में सम्बन्ध विचित्र बन्धते हैं । माता पत्नी बनती है, पत्नी माता बनती है...आदि । धिक्कार है ऐसे मंसार भ्रमण को। ऐसा चिंतन संसार खेद व सत्प्रवृत्ति उत्पन्न करता है।
८. विराग विचय : 'अहो ! (१) यह कैसा कथीर सा शरीर जो गंदे रज रुधिर में से बना, मल मूत्रादि अशुचि से भरा हुआ तथा शराब के घड़े की तरह इसमें जो डाला उसे अशुचि बनाने