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यह चिंतन अनुचिंतन से सकल सत्रवृत्ति के प्राणभूत श्रद्धा का प्रवाह अखण्ड बहता रहता है।
२. अपाय विचय : 'अहो ! अशुभ मन वचन काया और इन्द्रियों की विशेष प्रवृनिये अर्थात् विशेष कोटि के अशुभ विचार वाणी वर्ताव और रागादि से भरे इन्द्रिय-विषय सम्पर्कसे निष्पन्न भव-भ्रमणादि अनर्थों को मैं क्यों अपने ऊपर लू? जैसे किसी को बहुत बड़ा राज्य मिल जाय तब भी भीख मांगने की मूर्खता करे, वैसे मोक्ष मेरी पहुँच में होने पर भी संसार में भटकने की मूर्खता मैं क्यों करुं ? ऐसी शुभ विचारधारा से दुष्ट योगों के त्याग का चित्तपरिणाम जागता है ।
३. विपाक विचय : कर्म की मूल उत्तर प्रकृत्ति के मधूर व कटु फल का विचार, शुभ अशुभ कर्म के विपाक स्वरूप अरिहंत प्रभु की समवसरणादि सम्पत्ति से लेकर नरक की घोर वेदनाओं के उत्पन्न होने का विचार, तथा कर्म का विश्व पर एक छत्री साम्राज्य होने का विचार करना चाहिये जिससे कर्मफल को अभिलाषा दूर हो तथा अशुभ कर्मों के फल के समय समता-समाधि रहे।
8. संस्थान विचय : में १४ राजलोक की व्यवस्था का चिंतन करें। इसमें अधोलोक उलटी बालटी, या उलटी बास्केट (नेतकी) जैसा, मध्यलोक खंजरी जैसा तथा ऊर्ध्व लोक खड़े ढोत या शराव संपुट जैसा हैं। अधीलोक में परमाधामी आदि सहित तीब्र त्रासनायक सात नरक पृथ्वी हैं और ऊर्ध्व लोक में शुभ पुद्गलों की विविध घटना है। उसका तथा सकल विश्व में रहे हुए शाश्वत अशाश्वत अनेकविध पदार्थों आदि का चिंतन करना चाहिये। इस ध्यान से चित्त को विषयांतर में