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मध्यपमाय-रहिया मुणी खीणोवसंतमोहा य । । झायारो नाणधणा धम्मज्माणस्स निद्दिट्ठा ॥६३।
अर्थः- पवं प्रमाद से रहित मुनि तथा जिनका मोह क्षीण या उपशान्त होने लगा है ( याने क्षपक या उपशमकनिम्रर्थ तथा अन्य भी अप्रमादि) ऐसे ज्ञान रूपी धन वाले धर्मध्यान के ध्याता कहे गये हैं।
विवेचन :
धर्मध्यान के ध्यानी कौन ? याने यह ध्यान मुख्यतः कौन कर सकने के अधिकारी हैं ? तो कहते हैं (१) मद्य, विषय, कषाय, निद्रा, विकथा ये पांचों तथा अज्ञान, भ्रम, शंशय, विस्मृति आदि आठ प्रमाद से रहित मुनि अर्थात् सातवें अप्रमत्त गुणस्थान वाले मुनि और (२) मोहनीय कर्म की प्रवृतियों का उपशमन करने वाले या क्षय करने वाले निग्रन्थ याने ८, ९, १०वें गुणस्थानी जो ज्ञानधनी याने ज्ञानरूप धन वाले याने ज्ञानी हों वे धर्मध्यान के मुख्य अधिकारी हैं। इस तरह से जिनेन्द्र प्रभु तथा गणधरादि महर्षि कह गये हैं।
सच्चा विद्वान कौन ? प्रश्न- माषतुष मुनि में विद्वत्ता कहां थी ? तो उन्हें धर्मध्यान किस तरह ?
उत्तर-पंचसमिति तथा तीन मुप्ति का ज्ञान रखने वाले और उसे जीवन में बराबर उतारने वाले सम्यग्दृष्टि मुनि ही सच्चे ज्ञानी हैं । अन्यथा 'समकितविण नवपूरवी अज्ञानी कहेवाय' याने नव पूर्व तक पढ़े हुए भी समकित बिना अज्ञानी कहलाते हैं। नव पूर्व पढ़ा हुआ समकित बिना अज्ञानी कैसे ? इस तरह