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वाला है। मिष्टान्न को विष्ठा तथा पानी तो क्या, अमृत को भी पेशाब बना देने वाला है। ऐसा यह शरीर सतत इसके नवों द्वारों से अशुचि बहाता रहता है। (२) वह विनश्वर हैं, स्वयं रक्षाहीन है, और आत्मा के लिए भी रक्षण स्वरूप नहीं है । मृत्यु या रोग के हमले के समय माता, पिता, भाई, बहिन, पत्नी, पुत्र, पुत्री कोई भी इसे बचा नहीं सकता । तो इसमें मनोहर क्या रहा ? (३) शब्द रूप रस आदि विषय भी देखें तो उनके भोग जहरी किपाक फल खाने की तरह फलत: कटु, फिर सहज विनाशी, उपरांत पराधीन हैं । संतोषरूपो अमृतास्वाद के विरोधी हैं। सत्पुरुष उसे ऐसा ही बताते हैं । (४) विषयों से लगता सुख भी ब लक के लार वाला वस्त्र चाटने से दूध का स्वाद मानने जैसा कल्पित है । विवेको को इसमें श्रद्धा नहीं होती। विरति ही श्रेयकारी है । (५) गृह वास तो आग से प्रज्वलित घर के मध्य भाग जैसा है, यहां जलती हुई इन्द्रिये पुण्य रूपी काष्ठकों को जला देती हैं और अज्ञान परम्परा का धुआ फैलाती हैं । इस आग को तो धर्म मेघ ही बुझा सकते हैं। अत: धर्म में ही प्रयत्न करना योग्य हैं।' आदि राग के कारणीभूत विषयों में कल्याण विरोध होने का चिंतन करें। इससे परमानन्द का अनुभव होता है।
ह.उपाय विचय : 'अरे ! शुभ विचार वाणी बर्ताव को मैं कैसा विस्तृत करूंकि जिससे मेरे आत्मा की मोहपिशाच से रक्षा हो।' इस संकल्पधारा से शुभ भोगों का चिंतन करें।
इससे शुभ प्रवृत्ति के स्वीकार की परिणति उत्पन्न होती है।
१०. हेतु विचय : जहां प्रागम में कहे गये हेतु-गम्य पदार्थों पर विवाद खड़ा हो. वहां केसे तर्क का अनुसरण करने से वह विवाद शांत हो, उसमें स्याद्वाद-निरूपक आगम का आश्रय एवं