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है तो वह स्थापना निक्षेप आचार कहा जावेगा। (३) 'द्रव्य' याने भाव का आधार । आचार के भाव का आधार शरीर या आत्मा यह द्रव्य आचार-निक्षेप तथा (४) आचार का भाव याने मुख्य आचरण उदा० अहिंसा का आचरण यह भावनिक्षेप आचार कहा जावेगा। प्रत्येक वस्तु में यह नामादि चार निक्षेप होते हैं। किसी में उससे ज्यादा भी हों। जैसे 'लोक' वस्तु में नामलोक, स्थापनालोक, ""आदि ४ उपरांत क्षेत्रलोक, काललोक, भवलोक इत्यादि । र अनुगम यह तोसरा अनुयोग द्वार है। अनुगम करना य ने सूत्र या उसका नियुक्ति ( सूत्र के अर्थ के साथ में उसका नियोजन याने जोड़ना) के साथ अनुगत करना याने सम्मिलित समन्वित करना। उदा० 'आचार' अंग के सूत्र का पहला शब्द लेकर उस में और उसकी नियुक्ति का अनुगम किया जाय याने उसे उसके अर्थ के साथ जोड़ा जाय ।
नय : चौथा अनुयोगद्वार है। उसकी समझ निम्न है।
(ग) नयघटित : जिनवचन नयघटित है अतः वह महार्थ है । 'नय' याने भिन्न भिन्न दृष्टि, अपेक्षा, जिससे वस्तु का उस उस अंश से विचार हो, निर्णय हो। उदा० आचार के दो अश बाह्य तथा आभ्यन्तर । अतः उस अंश से आचार वस्तु का विचार व्यवहार नय से तथा निश्चय नय से किया जाय । व्यवहार की दृष्टि से आचार यानी कायादि से बाह्य अच्छा आचरण किया जाय उसे कहते हैं। निश्चयदृष्टि से आचार आत्मा की आन्तरिक शुद्ध आचरण-परिणति को कहते हैं। ऐसे ही दूसरे भी नय-अर्थनय, ज्ञाननय. क्रियानय, द्रव्यार्थिक नय, पर्यायार्थिक नय, नैगम नय, संग्रह नय आदि नयों को जिनवचन बताता है । इन नयों को लेकर जिनामम किसी भी पदार्थ का अनेकान्तमय दर्शन करवाता है, इसलिए वह नयघटित है।