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बैठे रहना, उसके ही सुख सन्मान का विचार करना यह अज्ञान दशा है । जीव के लिए तो अनन्त भूतकाल बह गया, उसने तो कई सुख सन्मान तथा दु ख के पर्वत देख लिये। यहां नया नया है कि उसमें मोहित हो गये ? फिर जीव के लिए भावी अनन्तकाल तो बड़ा ही है। उसे संक्षिप्त वर्तमान के ही मोह खातिर क्यों बिगाडा जाय ? इस तरह जीव की शाश्वतता का विचार किया जाय। फिर जीव काया से भिन्न होने का विचार करे !
३. काया से भिन्नता : जीव एक स्वतन्त्र द्रव्य है। जसे औदारिक काया याने हम जो शरीर धारण कर रहे हैं वह योग्य वस्तुओं जैसे घर पैसे चाज वस्तु आदि से बिलकुल भिन्न है; इसी तरह अन्दर रहा हआ आत्मा भी इस योग्य शरीर से बिलकूक भिन्न वस्तु है। शरीर योग्य होने से ही घर की तरह उसे मैले से उजला, दुर्बल से सबल करके उसे भांगा जाता है। उसमें आनन्द का साधन बनाया जाता है। तो उसका भोक्ता जीव भिन्न सिद्ध होता है। अन्यथा शरीर स्वय आपको क्या भोगे ? इसी तरह कामणकाय अर्थात् कर्म के संग्रह से भी जीव बिलकुल भिन्न है; क्योंकि वह जोता है, जीयेगा, जीता था अतः वह जीव कहलाता हैं। 'जीव' शब्द को यह व्युत्पत्ति शरीर को लागू नहीं होती। क्योंकि वह तो अन्त में निश्चेष्ट हो जाता है और फिर उसका तो नाश हो जाता हैं, फिर जीने की क्रिया कहां से रहेगी ? इस तरह शरीर से बिलकुल भिन्न स्वतन्त्र जीव होने का सोचे ।।
8. अरूविता : जीव अरूपी है, भमूर्त है, रूप, रस आदि गुणों से रहित है, अतः सिद्धशिला के ऊपर जहां मुक्त सिद्ध बना हुआ एक जीव है, वहां दूसरे अनन्त मुक्त जीव रहे हए हैं। अमूर्त होने से नसे दिमाग में एक ग्रन्थ का ज्ञान समा सकता है, वैसे ही मोक्ष स्थान छोटा होने पर भी वहीं एक ही स्थान पर