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( २१४) किं बहुणा, सव्वं चिय जीवाइपयत्थ-वित्थरोवेयं । सम्बनय समूहमयं झाएज्जा समय - सम्भावं ॥६२॥ ___ अर्थ:- ज्यादा क्या कहें ? जीवादि पदार्थ के विस्तार से युक्त (ऐस.) सर्व नयों के समूहात्मक सिद्धान्त (शास्त्र) के पदार्थ का ध्यान करे। (चिन्तन करे।)
संयोग के आधीन हैं, परवश हैं, परिस्थिति सापेक्ष हैं । यही का यही विषय-संयोग उपस्थित होने पर भी परिस्थिति बदलने पर वही दुःखरूप लगता हैं। उसका सुख गया ! तब यह मोक्ष का सुख तो अपना ( स्वयं का-आत्मा का ) स्वाभाविक स्वरूप होने से और सर्व संयोगों के नष्ट होने से प्रकट हुमा होने से वह शाश्वत रहता है । अतः यह कहा कि मोक्ष अक्षय सुखस्वरूप है। ऐसे मोक्ष का चिन्तन करे। ___'संस्थान विचय' नामक धर्मध्यान में क्या क्या सोचा जाय, किस किस पर ध्यान किया जाय, वह विस्तार से बता कर अब उसका उपसंहार करते हैं। विवेचन :
__ ज्यादा कहने से क्या ? संस्थान विचय नामक धर्मध्यान में सिद्धान्त के (शास्त्र के) पदार्थ का ध्यान चिन्तन करे अर्थात् जिनागम में कहे हुए किसी भी पदार्थ का एकाग्र भाव से चिन्तन करे वही यह धर्मध्यान होता है।
उत्तर - इस चिंतनीय जिनागमोक्त पदार्थ में क्या क्या आता है ? और वह कैसे स्वरूप में सोचा जाय ?
उत्तर-जिनागमोक्त पदार्थों में जीव अजीव आश्रव बंध संवर निर्जरा व मोक्ष नामक वस्तुओं का विस्तार है । और वह द्रव्यास्ति.