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ज्ञान दर्शन चारित्रमय है। उसे प्रकट करने के लिए उसी को आंशिक रूप से उखाड़ना पड़ा है। वह उसके आचार पालन से होता है। ऐसा मोक्ष कांनिक है, एकांत भावी है, अर्थात् उसमें सम्पूर्ण शुद्ध ज्ञानादिमय अवस्था प्रकट होने की वजह उसमें लेशमात्र भी अज्ञान मोह आदि का मिश्रण नहीं है। फिर वह निराबाध हैं। अर्थात् उसमें इतना ज्य दा अन त सुख है कि उसमें अब कोई बाधा पीडा या रुकावट नहीं है। अज्ञान-पीड़ाकारी तत्त्व कम-आवरण सर्वथा नष्ट हो जाने से अब अज्ञान या पीड़, कहां से खड़े होंगे या रह सकेंगे?
यह मोक्ष अवस्था स्वाभाविक हैं, जीव का स्वाभाविक रूप हैं। मोक्ष ह ने के पहले वह स्वरूप प्रकट दीखता नहीं था उसका कारण तो यह हैं कि कर्म के आवरणों से आच्छादित हो गया था। बाकी मोक्ष की अनन्त ज्ञानादिमय स्थिति बाहर से लाने की नहीं होती, वह तो असल में प्रात्मा में है ही, स्वाभाकि है, कृत्रिम नहीं हैं।
प्रश्न- तो परिश्रम करने से ज्ञान आता हैं वह कैसे ?
उत्तर यह ज्ञान 'आता है' याने अन्दर से वाहर आता है। आत्मा में असल में पड़े हुए ज्ञान पर जो आवरण है, वह परिश्रम से जैसे जैसे हटता जाता है, वैसे वैसे ज्ञान बाहर खुला होता जाता है, परन्तु बाहर से कुछ नया लाने का नहीं होता।
फिर यह मोक्ष निरुपम सुखमय है; क्यों कि उस सुख की उपमा नहीं है। संसार के सुख तो संयोग-जन्य हैं : उसके साथ इस असांयोगिक आत्मसुख की किस तरह तुलना की जा कती है ? सम्पूर्ण आरोन्य के सुख की रोगी अवस्था में कुपथ्य सेवन के आनंद के साथ कैसे तुलना की जा सकती है ? सांसारिक सुख विषय