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काय पर्याया स्तिकाय आदि नयसमूहमय है। इस रूप में उनका चितन करना है।
जिनागम में जीवादि का विचार किम तरह
कोई भी जैन शास्त्र लो, तो उसमें जीवादि वस्तु में से किसी वस्तु का विचार अवश्य किया हुआ मिलेगा। उदा० प्रथम 'आचारांग' शास्त्र में मुनि का आचार बताने के लिए जगत में कैसे कैसे जीव होते हैं, उन्हें कैसे कैसे शस्त्र लगने से दुःख होता हैं, और उसकी अहिंसा कैसे पाली जाय वह बताया है। तो यह जीव वस्तु का विचार हुआ। इसी तरह इन स्त्रों का उपयोग करने से दिल में कैसे कलुषित भाव काम करते हैं, तथा दूसरे भी कैसे कषाय, स्वजन मोह, परिसह-विह्वलता आदि अशुभ भाव रुकावटक रते हैं, यह बताया। यह आश्रव वस्तु का विस्तार है । इसी तरह अन्य भगवती पन्नवणा आदि शास्त्रों में पदार्थ व्यवस्था बताई है, वह जीव या अजीव वस्तु का विस्तृत विचार है। ऐसे ही छेद ग्रन्थों में संवर वस्तु का तथा अन्य कईयों में बंध का, निर्जरा का या मोक्ष का विचार है। जैन शास्त्रों की दृष्टि से विश्व में पदार्थ ही सात हैं, अतः जैन शास्त्र के इस पदार्थ के विस्तार में से किसी भी वस्तु का चिंतन या ध्यान इस प्रकार में करना होता है ।
अपाय-विपाक-विषय अलग क्यों बताये ? प्रश्न- इस तरह तो संस्थान विचय में रागादि अपाय और ज्ञानावरणीय कर्मों का विचय याने परिचय अर्थात् अभ्यासमय चिन्तन समा विष्ट हो जाता है; तो फिर अपाय-विचय और विपाकविचय ये दो भेद अलग क्यों बताये हैं ?
उत्तर-बात ठीक है कि संस्थान विचय के समुद्र जैसे विषयों में अपाय और विपाक का विचार समा जाता है: तव भी उसे