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खुद से किये कर्म खुद को भोगने पड़ते है । वर्तमान में जीव में अज्ञान है यह क्या है ? अपने ज्ञानावरणीय कर्मों का फलभोग । आंख काम नहीं देती, निद्रा, आती है, .. यह क्या है ? दर्शनावरणीय कम का फलभोग । जीव को राग-द्वेष, काम-क्रोध-लोभ आदि होते हैं यह क्या है ? स्वकीय ही कर्मों का वेदन। स्वयं ही किये कर्म स्त्र को ही भोगने पड़े यह युक्तियुक्त है। उधर व्यापार कोई करे और नुकसान दूसरे को हो यह नहीं बनता। फोड़ा जिसको, उसको पीड़ा भोगनी पड़ती है। जानते हैं कि सीताजी का यहां कोई अपराध नहीं; फिर भी उन का क्यों अपयश व हकालपट्टी हुई ? कहिए उनकी आत्मा के द्वारा पूर्व भव में उपार्जित कर्म के जरिये वैसी स्थिति हुई। हां, पूर्वभव में ही कर्म का प्रतिक्रमण-प्रायश्चित से नाश कर दिया होता, तो यहां दुःखद कर्म फल भोगना नहीं पड़ता। शास्त्र में कहा है, प्रतिक्रमण, तप, या फलभोग के द्वारा ही कर्मों का नाश होता है, कर्म से मुक्ति मिलती है। कर्मों का आत्मा पर सम्बन्ध हुआ यह मानो फोड़ा हुआ। वह जब पकता है तब उसकी पीड़ा अनुभव में आती है। यही कर्म का फल भोग हैं। इस प्रकार फलभोग अपने ही कर्मों का होता है। सारांश कर्म है वहां तक कर्म-भोक्तृत्व है, एवं फल भोग से कम नष्ट होता है। यह अगर सोचा जाए, तो दु:ख में आर्तध्यान नहीं होवे, दूसरे पर द्वेष नहीं होगा, एवं सुख में वस्तु पर मोह आदि रुक जायेंगे ।
जीवतच्च के सम्बन्ध में इन लक्ष आदि मुद्दाओं से चिंतन करने पर मन तन्मय एकाग्र बने वहां 'संस्थान विचय' नाम का धर्मध्यान होता है । (गाथा ५५) अब 'संसार' पर चिंतन बताते हैं। (गाथा-५६, ५७)
अब संसार पर चितन बताते हैं: