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( २०१ ) (१) स्वकर्म कर्तृत्व:-ऐसा शरीर से अतिरिक्त आत्मा जहां तक संमार में है वहां तक वह ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का कर्ता है। कर्मबन्ध के कारणों का सेवन करे तब सहज है कि कर्मबन्ध हो । ये कारण-,उदा० (१) हिंसादि पापों (आश्रवों) को त्याज्य न मानना ऐसी मिथ्यादृष्टि. (२) पाप करने की छूट हो अर्थात् पाप न करने की प्रतिज्ञा न हो यह अविरति, (३) रागद्वषादि कषाय, तथा (४) योग यानी हिंसादि पार्यों की प्रवृत्ति, - ये जीवन में चलते हैं यह स्पष्ट दिखता है। फिर कारणों के होने से कार्य का होना सहज है। इस तरह जीव इन कारणों के सेवन से कार्य 'कर्म' को उत्पन्न करता हैं, 'कम' का कर्ता बनता है। उन कारणों को बिलकुल छोड़ दे तब कर्मकर्तृत्व बन्द हो जाता हैं । व क्षण में मोक्ष होता है।
सांख्यदर्शनः- प्रात्मा को सदा के लिए अत्यन्त शुद्ध कूटस्थ नित्य मानता है, अतः कर्मों का कर्ता नहीं मानता। किन्तु यह मानना गलत है, क्यों कि आत्मा अगर कर्मों का कर्ता नहीं, तब तो उस के साथ कर्मों का सम्बन्ध भी नहीं, फलतः उसका संसार नहीं। कारण, कमंसयोग यह संमारावस्था है व कर्म वियोग यह मोक्षावस्था है। जीव को यदि संसार ही नहीं, तब मोक्ष किस का करना है ? मोक्ष करने योग्य है, मोक्षोपदेशक शास्त्रों हैं, एवं तदर्थ आराध्य मार्ग भी है. इससे सूचित होता है कि आत्मा का मोक्ष अब तक नहीं हुआ है, किन्तु संसार चालू है अर्थात् कर्मसंयोग चालू है। इसका कर्ता आत्मा स्वयं ही है। कोई अन्य व्यक्ति आकर आत्मा के उपर कर्मों को नहीं चिपका देता है; किन्तु आत्मा खुद ही कर्म के कारणों के सेवन द्वारा अपने साथ कर्मो के सम्बन्ध का सृजन करती है ।" इस प्रकार कर्मकतृत्व का चिन्तन करे । पुनः कर्म-भोक्तृत्व सोचे,
(२) कम भोक्तृत्वः-जीव स्वकर्मो का भोक्ता है ।