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( २०८ ) ही कषाय की तीन चौकड़ी जिसने दबा दी हैं तथा चौथी मंद चौकड़ी बाकी है, वह उस क्रोध मान आदि का उपयोग प्रशस्त रूप से करता है । अर्थात् असंयम-प्रमादादि के प्रति क्रोध, द्वेष, साधुत्व का गौरव, खुमारी.... आदि। इसी से कहा जा सकता है कि चारित्र में दोष नहीं रहे।
ज्ञान कप्तानः- जहाज के लिए कप्तान की आवश्यकता होती है वैसे यहां चारित्र में ज्ञानात्मक कप्तान है। चारित्र लेने के बाद ग्रहण-शिक्षा और आसे वन-शिक्षा द्वारा जैसे ज्ञानवृद्धि होती है, वैसे वैम चारित्र अधिकाधिक निर्दोष रूप में तथा चढ़ते हुए संवेग रंग से और अधिकधिक सूक्ष्मता से प्रगतिशील होता, है । सारांश यह कि ज्ञ न चारित्र के आगे बढ़ाता है, ज्ञान उसका नेतृत्व करता है।.... .
इस तरह चारित्र के बारे में सोचे।
संवर डक्कनः- चारित्र जहाज को संवर रूपी ढक्कनों से छिद्र रहित कर दिया गया है। संवर याने अाश्रवनिरोध । आत्मा में इन्द्रियों के विषयों की लगन, कषाय, अव्रत आदि आश्रव हैं, वे छिद्र हैं। इनके द्वारा कर्मरज आ आ कर आत्मा में जमा होती है। इन आश्रव छिद्रों को समिति, गुप्ति, परिम्हसहन, क्षमा आदि १० यतिधर्म आदि से बन्द किया जाता है। इसी का नाम संवर है। इसी से कर्मरज का आत्मा पर चिपकना रुक जाता है।
तपरुपी वायुः- चारित्र जहाज को तेजी से चलने के लिए तपरूषी वायु से वेग मिलता है। अनशन, उनोदरी आदि बाह्यतप, और प्रायश्चित्त विनय आदि आम्यंतर तप दोनों चारित्र को इस तरह से वेग देते हैं कि इससे बाह्य वृत्तियों के दबने से तथा श्रु त (शास्त्र) रटने आदि की सत्प्रवृत्ति खूब रहने से बची