Book Title: Dhyan Shatak
Author(s): 
Publisher: Divyadarshan Karyalay

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Page 235
________________ ( २१.) जाती है। शास्त्र व्यवसाय इतने अधिक समय चलते रहने से मन उसी में लगा रहने से दुर्ध्यानादि विकल्पो से विचलित न हो यह स्वाभाविक है। १८००० शीलांग की गिनती ... यह चारित्र जहाज महा किमती १८००० शीलांग रूपी रत्नों से भरा हुआ है । शीलांग याने शोल के सद् आचार के अंग, यानी अवांतर प्रकार । वह पृथ्वीकायादि आरम्भ-त्याग आदि १८००० हैं। जैसे पृथ्वीकाय, अपकाय, तैजसकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, ये ५ स्थावरकाय जीव तथा बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौरिंद्रिय ये ३ विकलेन्द्रिय, जीव मिलकर ८ तधा पचेन्द्रिय जोव आर अजीव मिला कर कुल १० का आरम्भ, समारम्भ, हिंसा न करे यह शीलांग कहलाता हैं। इसमें अजीव आरम्भ के त्याग का अर्थ कोई निरर्थक प्रवृत्ति जड़ के बारे में भी नहीं करना। उदा० वस्त्र जैसे मिला हो वैसा ओढे, पर उसे फाड़ना, सीधा करना आदि परिकम नहीं करना । इस तरह से बेकार एक तृण भी तोड़ना नहीं या मार्ग में जाते हुए नगोचा आदि देखना भी नहीं, यह १० प्रकार का आरंभ त्याग हुआ। __ यह १० प्रकार का प्रत्येक आरम्भ त्याग १. प्रकार के क्षमादि यतिधर्म को सम्हालते हुए करना है। इसमें क्षमा, मृदुता, ऋजुता, निर्लोभता आदि ४ तथा संयम, सत्य, शौच (पवित्रमन) ब्रह्मचर्य, अकिंचनता (अपरिग्रह ) मिलकर ५ तथा तप आते हैं। प्रत्येक पृथ्वीकायादि का समारम्भ त्याग क्षमा से पाले, नम्रता से पाले,....तप से पाले; ये दसों प्रारम्भ त्याग इस तरह से पालना चाहिये । अतः कुल १०x१०=१०० शीलांग हुए। अब इन १०० में से प्रत्येक पांचों इन्द्रियों के संयम सहित करना होता हैं। उदा. पृथ्वीकाय जीव की रक्षा क्षमा के साथ करना

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