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५ संसार चिंतन ऐसे शरीर से बिलकुल ही स्वतंत्र आत्म द्रव्य का स्वोपाजित कर्मो के योग से हो संसार उत्पन्न होता है । कर्म का प्रवाह अनादि काल से चालू है, तो संसार भी अनादि काल से चला आता है। "संसार याने संसरण पर्यटन भटकन' कहां ? जन्म-मरण, गति कर्म, योग, पुद्गल-संबंध, रागादि अशुभ भाव, सुख-दु:ख आदि म । स्वकर्म जनित यह संसार है। उसका चिंतन निम्न प्रकार से होता है।
ससार एक समुद्र जैसा है । समुद्र में पानी बहुत है वैसे संसार में जन्म जरा मरण अत्यन्त है अतः कहिए जन्मादि रुप पानी इम में है। समुद्र का पैदा (पाताल) भी ऐसा है कि जिसमें से अगाध पानी प्राता ही रहता है, कभी भी पानी पाना बंद नहीं होता। इसी तरह संसार में क्रोधादि कषाय रुपी पैंदा भी होता है कि उसमें से अगाध जन्मादि बहते ही रहते हैं। फिर संसार समुद्र में सकड़ों व्यसन याने आपत्ति रुपी श्वापद हैं, जलचर जतु हैं। आपत्ति पीड़ा देने वाली होने से उन्हें श्वापद की उपमा दी हैं।
यहां गाथा में 'सावयमणं' पद में 'मण' शब्द है। यह दृश्य शब्द है, इसका अर्थ वाला' होता है। सावयमणं याने श्वापद वाला कहा है कि 'मगु अत्थंमि मुणिजह आलं इल्लं मणं च मणुअंच' । 'मत्वर्थ' में याने संस्कृत में जहां 'मतु'-मत् वत् प्रत्यय लगता है, वहां गकृत में पाल, इल्ल, मण, मगुय प्रत्यय आते हैं । जैसे दीन दयाकान के लिए दीनदयाल' शब्द का उपयोग होता है, वैसे गर्ववान् , गर्विष्ठ के लिए 'गचिल्ल', श्वापदवान्' के लिए 'सावयण' का उपयोग होता है ।
पुनः संसार समुद्र में मोहनीय कर्मरूपी आवर्त हैं, भ्रमर हैं; क्यों कि जहाज यदि भ्रमर में फंसा तो वह वही का वहीं गोल