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मिच्छत मोहियमई जीवो इहलोए एव दुखाई । निरयोवमाई पावो पावइ पस माइगुणहीणो ||
ज्ञानं खलु कष्टं क्रोधादिभ्योगं सर्वपापेभ्यः । अर्थ हितमहितं वा न वेति येनावृतां लोकः ॥
अर्थ : - मिथ्यात्व से मोहित मति वाला पापी जीव प्रशम संवेग आदि गुणों से रहित होने से इस जीवन में ही नरक के जैसे दुःख प्राप्त करता है । ( नरक के जीव को बाहर की तीव्र वेदना से अन्तर मन में भारी संताप - दुःख होता है । तो ऐसे जीवों को अन्दर से मिथ्यात्व की पोड़ा से और उससे बाह्य उलटी प्रवृत्ति की विडंबानाओं से अन्तर में भारी संताप होता है ।)
क्रोधादि सर्व पाप से भी अज्ञान मिथ्यामात सचमुच ही दुःखरूप है। क्योंकि इससे आच्छादित लोग हिताहित वस्तु को नहीं समझते । (यदि अज्ञान मिथ्यात्व न हो तो क्रोधादि होने पर भी वह समझेगा कि 'इसमें मेरा अहित है इसके त्याग में ही मेरा हित है ।' इससे वीर्योल्लास बढने पर उसे फेंक दे । किन्तु यदि मिथ्यात्व हो तो क्रोधादि को अहितकारक समझता ही नहीं, तो फिर उसका त्याग क्यों करे ?)
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अविरति के अनर्थ
इसी तरह अविरति आश्रव के भी अनर्थ को इस तरह सोचे:जीवा पावंति इहं पाणबहादविरईए पावाए | निसुयायणमा दोसे जखगरहिए पावा || परलोय म वि एवं आसव किरिया हि अज्जिए कम्मे । जीवाण चिरमवाया निग्याइगई भमंताणं ॥