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( १८० ) तरह से भेद ( प्रकार ) की बात हुई। इसके अलावा जीव और पुद्गल के अनेक तरह से भेद होते हैं। उदा. जीव में मुक्त और संसारी, त्रस और स्थावर, एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय....पंचेन्द्रिय तथा इन प्रत्येक के उत्तर भेद आदि का चिंतन करना है। इसी तरह पुद्गल में औ...,दारिक वर्गणा. वक्रिय वर्गणा, आहारक तेजस...., भाषा; श्वासोच्छ वास; मन; तथा कामण वर्गणा....आदि। इन प्रकारों का चिंतन यह सब ‘संस्थानविचय' धर्मध्यान में आता है ।
(v) प्रमाण : छः द्रव्यों के प्रमाण का चिंतन करें । प्रमाण याने परिमाण या साधक युक्ति । इस का चितन करना। उदा. परिमारण में, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश और जीव ये चारों समान नाप के असंख्य प्रदेशी हैं। तब भी जीव शरोर के प्रमाण में छोटा बन जाता है। अलबत्ता, इसमें एक भी प्रदेश कम न होकर उन सब का संकोच होता है, इतना ही। बाकी देव जैसे भी जब दू रा शरीर याने उत्तर वेक्रिय शरीर बना कर बाहर मेजते हैं, तब मूल (असली) शरीर के आत्म प्रदेश लंबे विस्तृत बन कर अखण्ड सं ठग्न रहते हैं। बीच के अन्तर में भी आत्मप्रदेश रहते हैं। केवलज्ञानी समुद्धात करे तो एक समय के लिए समस्त लोकाकाश में उनके आत्मप्रदेश व्याप्त हो जाते हैं। पुद्गल में एक परमाणु से लेकर अनन्त प्रदेशीय स्कंध हैं, परन्तु ज्यादा से ज्यादा वह लोकाकाश के असंख्य आकाश प्रदेश में समा जाय उतने ही नाप का होता है । अब दूसरा अथ सोचें।। :..प्रमाण याने ६ द्रव्य की साधक युक्ति : उदा० धर्मास्तिकाय के लिए यह सोचें कि 'स्वाभाविक गति वाला परमाणु तथा जीव लोकाकाश से बाहर क्यों नहीं जाता? तो वहां मानना पड़ेगा कि गति सहायक कोई तत्त्व सिर्फ लोकाकाश में ही है, पर बाहर नहीं है अर्थात् बाहर अवकाशदान करने वाला द्रव्य