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सामयिक सामयिक.... आदि और नया पुरानापन आदि पर्याय उत्पन्न होते हैं; और पर्याय द्रव्य में भेदाभेद सम्बन्ध से आश्रित हैं, अतः द्रव्य से कथंचित् अभिन्न याने एकरूप होने से काल का नम्बर अलग न गिन कर विश्वान्तर्गत बताए हुए द्रव्य - पर्याय में उसका समावेश गिन लिया ।
ऐसा पंचास्तिकायमय लोक अनादि-निधन अर्थात् आदि और निधन ( नाश, अन्त) रहित है । अनादि कहने से इस बात का निषेध किया कि 'लोक ( विश्व जगत कभी भी ईश्वर से रचित होता है ।' ईश्वर रचना का निषेध इस लिए कि उससे अनेक आपत्ति खड़ी होती हैं ।
जगत् कर्ता ईश्वर के सिद्धान्त में आपत्तियें :
(१) यदि ईश्वर की रचना के पहले कुछ नहीं था, तो उपादान कारण बिना जगत रूपी कार्य कैसे बना ? (२) यदि कहो कि 'उपादान परमाणु थे' तो निमित्तभूत कारणों के बिना कार्य कैसे हुआ ? (३) ईश्वर ने किस प्रयोजन से रचना की ? (४) अच्छे बुरे की रचना होने से ईश्वर रागी द्वेषी सिद्ध नहीं होगा ? (५) रचना के लिए पहले तो ईश्वर का शरीर ही कैसे बना? और वह कितना बड़ा होगा ? (६) इश्वर ने जीव भी बनाये, ऐसा मानने से प्रारम्भ में दुःखी और कुकर्मी बनाने वाला ईश्वर कितना अधिक तामसी व निर्दय ? इत्यादि अनेक आपत्तियें खड़ी होने से 'जगत ईश्वर ने बनाया ?' का सिद्धान्त युक्ति रहित सिद्ध होता है और अमान्य बन जाता है ।
अतः कार्यकारण भाव के अटल सिद्धान्त से तथा 'नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः' अर्थात् जगत में भोई भी भाव पहले सर्वथा असत् नहीं था, तथा सत् का सर्वथा अभाव याने नाश