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(१८८) कभी नहीं होगा। इस सिद्धान्त से पंचास्तिकाय लोक अनादि अनंत सिद्ध होता है।
'लोक' के नामादि ८ निक्षेप 'लोक' का अनेक तरह से दर्शन होता है, इससे वह अनेकस्वरूप का है । उदा० श्री 'आवश्यक नियुक्ति' बास्त्र के 'चतुर्विंशति तव' नामक अध्ययन में कहा है:-- -
नाम दुवणा दविए खिचे काले भवे अ भावे । पज्जवलोगो अतहा 'अट्ठविहो लोगनिवखेवो ॥
अर्थ:-नामलोक, स्थापना लोक, द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, कालकोक, भवलोक, भावलोक और पर्यायलोक ये ८ निक्षेपे 'लोक' के हैं । अर्थात् लोक के ८ विभाग हैं या ८ प्रकार से है। १. नामलोक याने जिसका नाम 'लोक' रखा वहां वह कौन है ? (यह क्या है ?) उत्तर में 'लोक' कहा जावेगा। परन्तु यह नाममात्र से लोक हुआ। २. 'स्यापनालोक' किसी चीज में लोक की स्थापना की जाती है। उदा० १४ राजलोक के नकशे में बताया जाता है कि यह इतना लोक है और बाकी का अलोक है । (३) द्रव्य लोक याने द्रव्य रूप लोक; सब जीव अजीवरूप द्रव्यों को कहा जाता है । (४) क्षेत्र लोक । क्षेत्र रूपी लोक समस्त लोकाकाश को कहा जाता है और अनन्त आकाश भी क्षेत्रलोक है; क्यों कि आकाश क्षेत्र रूप है, चाहे उस सब का उपयोग न भी हुआ हो, होता हो। यहां 'लोक' याने अवलोकित हो, ज्ञान से जाना या देखा जाय वह । (५) काललोक : एक समय से लेकर पुद्गल परावर्त तक के काल को कहा जाता है । (६) भव लोक : याने वर्तमान भव में रहे हए चारों गति के जीव जिसे भोग रहे हैं वह । (७) भाव लोकः याने औदयिक, औपशमिक,