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खंजरी जैसा तथा ऊपर संपुट ( मिट्टी के एक दीपक पर दूसरा उलटा दीपक ) जैसा होता है जिसमें क्रमश: नीचे से ऊपर तीनों हिस्सों में अधोलोक (नरक) मध्यलोक ( मृत्युलोक ) तथा ऊर्ध्वलोक ( स्वर्गादि) हैं । काल का प्राकार मनुष्य क्षेत्र याने अद्धा क्षेत्र जैसा है (अद्धा = काल ) क्यों कि काल मनुष्यलोक में स्थित सूर्य चन्द्र की गति के आधार से गिना जाता है ।
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(iii) आसन याने आधार : छ द्रव्यों के रहने का आधार क्या है ? यह सोचना है । इसमें व्यवहार नय (दृष्टि) से लोकाकाश स्वयं धर्मास्तिकायादि अन्य पांचों द्रव्यों का आधार है । क्योंकि वह क्षेत्र रूप है, अन्य द्रव्य उसमें स्थित होने से क्षेत्रीय हैं । अथवा निश्चय दृष्टि से तो प्रत्येक वस्तु अपने स्वरूप में ही रहते हैं, क्योंकि दूसरे में रहने पर यह प्रश्न होता है कि वे आधार पर सर्वांश में रहते हैं या अंश में ? सवाँश से रहें तो तद्रूप बन जाने की आपत्ति आती है । अंश में रहे तो पुनः प्रश्न उपस्थित होगा कि वस्तु यदि. अंश में रहती है तो उस अंश के सर्वांश में रहेगी या अंश में ? इस तरह सोचने से व्यवस्था नहीं रहती । इसलिए यह कहना चाहिये। कि वस्तु दुसरे में न रह कर अपने ही स्वरूप में रहती है । यह स्वस्वरूप ही आधार है । इस तरह व्यवहार तथा निश्चय में: आधार का चिंतन करें ।
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(iv) विधान याने प्रकार : इसमें छः द्रव्यों के आवांतर भेदों को विचारें । उदा० धर्मास्तिकाय के प्रकार : १. अखंड धर्मास्तिकाय स्कंध, (२) धर्मास्तिकाय का देश ( हिस्सा ) ओर (३) धर्मास्तिकाय का प्रदेश याने छोटे से छोटा अंश । इसी : तरह अधर्मास्तिकाय आकाश और जीव के भी भेद होते हैं । तो. पुद्गल में स्कंध, देश, प्रदेश उपरांत परमाणु भी एक भेद है। स्कंध छूट कर अलग हुआ प्रदेश परमाणु कहलाता है । यह तो एक
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