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बादर रूप से और उर्ध्व तथा अधोरूप से बंध जाते हैं। पहले आत्म प्रदेश के साथ उनका स्पर्श होता है, फिर 'अवगाढ़' याने प्रविष्ट होते हैं और तब 'अनंतर' याने अन्तर रहित हिल मिलकर एक रूप हो जाते हैं । वे पहले 'अगु' याने छोटे स्कंध के रूप में और फिर 'बादर' याने बड़ स्कंध के रूप में बंधे जाते हैं । एवं ऊर्ध्व व अधो याने ऊपर या नाचे से भो बंधते हैं। इस सबका कविधाक ध्यान में चितन करे।
फिर अभाव याने स्पृष्ट-बद्ध-निकाचित आठ कर्मों का उदय से वेदन । स्पृष्ट आदि में सुइयो का दृष्टान्त दिया जाता है। सुइयों को एक रस्सो में पिरोया जाय तब परस्पर स्पर्श कर के रहें वह स्पृष्ट; गरम करने पर परस्पर चिपक जायं वह बद्ध ; तथा उन्हें पिघला कर एक करदो जाय तो वह निकाचित । इसी तरह कर्मों का आत्म प्रदेशों के साथ स्पृष्ट, बद्ध या निकाचित रूप से बंध होता है । अथवा हम उन्हें सामान्य संबद्ध, विशेष से बद्ध तथा गाढ़ से बद्ध कह सकते हैं । ऐन कर्मों का उदय होकर उन्हें भोगना अनुभाव या अ.भाग कहलाता है।
इस तरह कर्मों के प्रकृति स्थिति, प्रदेश तथा अनुभाव के विपाक का चिंतन करे। ये कर्म विपाक 'योगानुभाव से उत्पन्न होता है उसमें मनोय ग आदि तान योग है,तथा मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद व कषाय ये अनुभाव हैं । इन सब तरह से उत्पन्न कर्मो के विपाक का उदय का चितन करे ।
___ यह तो 'विपाकविचय' धर्मध्यान हुआ। इसका प्रभाव यह है कि रोगादि की पीड़ा के समय जो हाय हाय होकर आर्तध्यान होता है, वह इससे रुक जाता है और जीव को समता समाधि का