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बवन्य से समय या अन्तर्मुहुन तथा उत्कृष्ट से ७० कोटाकोटि सागरोपम होता है। (३) प्रदेश याने जीव के प्रत्येक प्रदेश (सूक्ष्म अंश । के साथ कर्मपुद्गल के दलिक कहीं ज्यादा व कहीं कम चिपकते हैं। (४) अनुभाग याने विपाक; रसोदय । इसके विपाक में ज्ञानावरणादि के स्वभाव की उग्रता मंदता का अनुभव करना पड़ता है। इस तरह प्रकृति आदि के विपाक का चिंतन करना होता है।
यह प्रकृति आदि शुभ व अशुभ दो प्रकार से होती है। उदाहरणार्थ ज्ञानावरण, दर्शनावरण,मोहनीय तथा अंतराय ये चारों अशुभ ही है तो शातावेदनीय आदि कर्म शुभ हैं और अशातावेदनीय आदि अशुभ हैं । अतः कर्म की प्रकृति आदि कैसी शुभ या अशुभ हैं, उसका चिंतन करना चाहिये ।
___ इस विपाक का भी योगानुभाव से चितन करना । 'योग' अर्थात् मनोयोग,वचनयोग तथा काय योग तथा 'अनुभाव' से कषाय अविरति, मिथ्यात्व तथा प्रमाद के अनुसार विपाक उत्पन्न होता है। उदाः तंदुलियात्स्य बड़े मत्स्यके मुख में से कितने ही छोटे मत्स्य क्षेमकुशल निकल जाते देख कर मनोयोग से उनके भक्षण का विचार करता है तथा उस पर उसका जोरदार कषाय रहता है। इससे नरकगति के भारी कर्म एवं इनके अतिदुःखद विपाक का सर्जन होता है।
दूसरी तरह से वृद्ध पुरुषों की व्याख्या के अनुसार 'प्रदेश' याने जीवप्रदेश के साथ कर्मप्रदेश; का मिलन ये कर्म पुद्गल क्षेत्रावगाही होते हैं; याने जीव का प्रदेश जितने क्षेत्र में रहें । उतने ही क्षेत्रमें कर्मप्रदेश रहें। आत्मप्रदेश में ये कर्म प्रदेश स्पृष्ट रूप से, अवगाढ रूप से, अनंतर रूप से तथा अणु व