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पयइठिइपएमाऽणुभावभिन्न सुहासुह विहचं । जोगाणुभाव जणियं कम्मविवांगंण विचिंतेज्जा ॥५१ ।
अर्थः--प्रकृति स्थिति प्रदेश अनुभाव के विभागों से भिन्न भिन्न शुभ अशुभ के विभागों से भिन्न तथा योग और कषायादि से उसन्न कर्म विपाक का चिंतन करे।
हो, रागादि सेवन में मग्न हो, उसके हृदय में तो उमको मिठाय होने से वह रागादि के अनर्थ दिल से कैसे सोच सकता है ?
विपाक-विचय धर्मध्यान
अब 'विपाक विचय' नामक धर्मध्यान का तीसरा प्रकार कहते हैं। विवेचन
_ 'विपाक-विचय' नामक धर्मध्यान के तीसरे प्रकार में प्रात्मा पर बंधे जाने वाले कर्मों की प्रकृति स्थिति रस प्रदेश के विपाक का चिंतन करना होता है।
प्रकृति स्थिति प्रदेश तथा अनुभाव (१) प्रकृति याने ज्ञानावरण दर्शनावरण आदि कर्मों के मूल प्रकार तथा प्रत्येकके उत्तर भेद और उनके स्वभाव उदाहरणार्थ विपाक के समय ज्ञान का,रोकना दर्शन का,रोकना, आदि का चिंतन करें। (२) स्थिति याने कर्मों का आत्मा पर चिपके रहने का काल,