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जीवन में ही दुःखी होता है और परलोक में संसार को अत्यन्त बढाने वाले बनते हैं ।
जिस क्रिया में अन्त में जीव की हिंसा होती है, उसमें पांच कदम होते हैं। पहले काया की हलचल होती है तो वह कायिकी क्रिया । फिर हिंसा का साधन पकड़ता है वह अधिकररिकी क्रिया । बाद में हिंसा के लिए मन में द्वेष करता, कठोरता आदि उत्पन्न हों वह प्राद्वेषिकी क्रिया । फिर शास्त्र - प्रयोग करते हुए जीव को दुःख देना होता है वह पारितापनिकी क्रिया, और अन्त में जीव का नाश होता है वह प्राणापातिकी क्रिया है ।
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श्रव के अनर्थ के दृष्टांत
यहां राग, द्वेष, कषाय, मिथ्यात्व अविरति और हिंसादि क्रिया से उत्पन्न अनर्थों का चिंतन करना है, वह इस तरह से करे कि 'अरे ! इस जीवन में रागादि में से कैसे कैसे महानुकसान-महानहानिहोती हैं । मम्म धनं पर के राग पूर्वक सुख से खा पी भी न सका । कोणिक राज्य के लोभ में द्वेष से पिता श्रेणिक को कैद में डालने वाला बना, और जब उसे भान आया तब पिता को गुमा देना पड़ा । सुभूभ समृद्धि के लोभ में और मद में घातकी खंड के भरत को जीतने जाते वक्त विमान तथा सारे लश्कर सहित समुद्र में गिर कर डूब मरा। प्रदेशी राजा ने सूर्यकान्ता रानी पर बहुत राग किया तो रानी ने अन्त में जहर दिया । धवल सेठ श्रीपाल पर द्वेष की प्रवृत्ति करते करते दु:खी होकर अन्त में श्रीपाल को मारने जाते हुए गिरा ओर अपनी ही कटारी से स्वयं ही मरा। कुलवालक मुनि वेश्या के राग में अन्त में भगवान का स्तूप उखाड़ डलवाने वाला हुआ । अभया रानी को सुदर्शन सेठ पर कॉमराग तथा माया करने पर देश निकाल की सजा हुई । सोमिल ससुर ने गजसुकुमाल को द्वेष से मार डालने के बाद वह स्वयं कृष्णजी को देखते ही हृदयाघात हो जाने में मर गया ।