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संवर कयनिच्छिदं तवपवणाइद्धजइण तग्वेगं । ववेग्गमग्गडियं विसोचियावीइ निक्खोमं ॥ ५९ ॥ पारोढु मुणिपणिया महरबसोलंगरयण पडिपुन । जह तं निव्याणपुर सिग्यमविग्येण पावंति ॥ ६ ॥ तत्थ य तिग्यण विणिरोग मइय मेगंतियं निराबाह। साभावियं निरुवमं जह सोक्खं.अक्खयमुर्वेति ॥ ६१ ।। किं बहुणा ? सव्वं चिय जोवाइ-पयत्थवित्थरोवेयं । सबनयसमूहमयं झाएज्जा समयसम्भावं ।। ६२ ।।
अर्थः-- चौथे संस्थान विचय में श्री जिनेश्वर भगवान द्वारा उपदिष्ट धर्मास्तिकायादि द्रव्यों के लक्षण, प्राकृति, आधार प्रकार प्रमाण और उत्पाद व्यय ध्रौव्यादि पर्यायों का चिंतन करे ॥५२॥
जिनोक्त अनादि अनंत पंचास्तिकायमय लोक को नामादि नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काल भाव पर्याय-लोक) भेद से ८ प्रकार से तथा अधो मध्य ऊर्ध्व तीन प्रकार से चिंतन करे ।। ५३ ।।
धम्मा आदि सात भूमियों, धनोदधि आदि वलयों, जंबूद्वीप आदि असंख्य द्वीप समुद्रों, नरक; विमान, देवभवन तथा व्यंतरनगरों आदि की आकृति, आकाशवायु आदि में प्रतिष्ठित शाश्वत लोक व्यवस्था के प्रकार आदि का चिंतन करे ।। ५४ ॥
साकार निराकार उपयोग स्वरूप अनादि अनंत,तथा शरीर से भिन्न, प्ररूपी, स्वकर्म का कर्ता भोक्ता आदिरूप जीवका चिंतन करे।५५॥