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क्षेत्र, काल भाव की अपेक्षा से सत् ही हैं, परन्तु पर द्रव्य, क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा से सत् नहीं है। अब स्वद्रव्यादि परद्रव्यादि दोमों का क्रमशः एक एक की अपेक्षा लेकर दोनों की दृष्टि से कैसा? तो कहते हैं कि वह सदसत् है। यह तीसरा भंग हुआ। परन्तु एक साथ स्त्र पर द्रव्यादि की उभय (दोनों) की अपेक्षा से कैसा है ? तो जवाब में नहीं कहा जा सकता है कि 'सत्' या 'असत्' या 'सदसत्'; अतः अवक्तव्य ही कहना पड़ेगा। यह चौथा भंग हुआ। फिर एक एक की अपेक्षा से और साथ में एक साथ उभय की अपेक्षा से कैसा है ? तो (५) सत् अवक्तव्य (६. असत् अवक्तव्य (७) सट्सत् ' अवक्तव्य है। इस तरह कुल ७ भंग याने सप्तभंगी होती है। इसी तरह अनित्य आदि धर्मों को लेकर अनेक सप्तभंगी बनतो हैं । ऐसी भंग रचनाओं से वस्तु का अनेकांत शैली से विस्तृत तथा सर्वांश सत्य बोध होता है। ये भंग रचनाएं भी मात्र एक जिनवचन की ही बलिहारी है । अहो कैसे गम्भीर जिनवचन।
प्रमाण : वस्तु का बोध करवाने वाले द्रव्यादि प्रमाण हैं, वे अनुयोग द्वार सूत्र में बताये हैं । वे इस प्रकार ::
द्रव्यादि ४ प्रमाण प्रमाण याने जिससे प्रमेय सिद्ध हो या जाना जाय । 'प्रमाणात् प्रमेय सिद्धिः ।' प्रमाण से सत्य वस्तु प्रमेय ज्ञात होता है। प्रमेय याने जगत को ज्ञेय ज्ञातव्य वस्तु । उसे बताने वाला या सिद्ध करने वाला प्रमाण। यह ४ प्रकार से है - द्रव्य प्रमाण, क्षेत्र प्रमाण, काल प्रमाण और भाव प्रमाण । जिस द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से
और भाव से वस्तु नापी जाती है, निश्चित की जाती है, उस द्रव्यादि को प्रमाण कहते हैं।
(१) द्रव्य प्रमाण: यह दो तरह से है:-१. प्रदेश निष्पन्न तथा २ विभाग निष्पन्न ।