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( १४९ ) आदि। भंग, भांगो, भंगी (विकल्प ) याने प्रकार या भेद । उदा० चतुर्भमी याने चार प्रकार का समूह। सामान्य रूप से क्रम भेद से या स्थान भेद से भंग रचना होती है अर्थात् क्रम बदलने से या स्थान बदलने से जो प्रकार या भेद खड़े होते हैं वे क्रमभंग या स्थानभंग कहलाते हैं। जैसे उदा. क्रमभंग में क्रमश: दो वस्तुएं लेने की हों तो उनके चार भंग या प्रकार होगे। (१) एक जीव व दूसरा अजीव (२) एक जोव दूसरा भी जीव (३) एक अजीव तथा दूसरा जीव और (४) एक अजीव तथा दूसरा भी अजीव । ये चार प्रकार या चतुभंगी हुई। ज्यादा वस्तुओं से ऐसी कितनी ही चतुभंगी हो जाती है । स्थानभंग में उदा० कोई प्रियधर्मा हो पर दृढधर्मा न हो, (२) कोई प्रियधर्मा हो और दृढधर्मा भी हो (३) कोई प्रियधर्मा न हो पर दृढधर्मा हो और (४) कोई प्रियधर्मा भी न हो और दृढधर्मा भी न हो। दो वस्तुओं से चतुर्भगी होती है पर तीन का स्थानभंग करना हो तो आठ भग होंगे। उदा० व्रत के बारे में जाने, आदर करे तथा पालन करे' के ८ भंग होते हैं । 'जाने' याने व्रत ग्राह्य है ऐसी श्रद्धा हो, 'आदर करे' याने प्रतिज्ञा करे और पालन करे याने प्रतिज्ञा से या प्रतिज्ञा बिना भी उसका पालन करे । इन तीन के आठ भंग होते हैं। इस तरह से अनेक प्रकार की भंग-रचना होती है। इससे पदार्थ-बोध विस्तृत होता है। ऐसी ही एक सप्तभंगी है।
सप्तभंगी : तो अनेकांत समझने के लिए स्पष्ट व मजबूत व्यवस्था है। इसमें वस्तु में रहे हुए प्रत्येक धर्म का अपेक्षाविशेष लेकर विधि निषेध से विचार किया जाता है। उदा० घड़ा सत् है, अनित्य है, बड़ा है आदि प्रत्येक का इस तरह से विचार होता है कि 'क्या घड़ा सत् ही है ? नित्य ही है ? बड़ा ही है ? या सत् नहीं है भी ? नित्य नहीं है भी? बड़ा नहीं है भी ?' तो जवाब में घड़े के स्वद्रव्य,