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याने 'इस लोक व परलोक के सुखादि की आशंसा रखे बिना' ऐसा होता है। धर्मध्यान तो अच्छा करे, पर साथ ही उलके फलस्वरूप किसी सांसारिक वस्तु, धन, मान, कीर्ति आदि की आशंसा या आकांक्षा रखे तो यह ध्यान चिंतन निरवद्य या निर्दोष रूप से किया गया नहीं कहा जा सकता। यह समझना चाहिये कि अद्भुत कर्मक्षय और जबरदस्त पुण्योपार्जन करवाने वाला इतना सुन्दर धर्मध्यान मिला है तो फिर उसके फलस्वरूप तुच्छ, नाशवन्त और मारक (मारने वाल:) फल की आकांक्षा क्या करना? यह करने से तो धर्मध्यान के संस्कार के बदले अति इच्छित तुच्छ जड़की लालसा के संस्कार दृढ होते हैं, जो अनेक दुर्गति के भवों में भटकाते हैं । इसोलिए शास्त्र में कहा है कि 'नो इहलोगट्ठयाए, नो परलोगट्ठयाए, नो परंपरिभवओ अहं नाणी।' अर्थात् 'मैं ज्ञानी हूं याने ज्ञान ध्यान करने वाला हूं वह इस लोक के सुख हेतु से नहीं, परलोक के सुख हेतु से भी नहीं, और दूसरे के अपमान के हेतु से भी नहीं।' इस तरह निर्दोष रूप से ध्यान करे।
(१३) अनिपुण जन दुज्ञेय : 'अहो ! अशुभमति वाले के समझ में भी नहीं आवे ऐसा जिनवचन कैसा गम्भीर है कि सुमति वाले ही इसे तथा इसकी भव्यता, महानता, अनन्त कल्याणकारकता को समझ सकते हैं । कुमति वाले या तो विषय लुब्ध होते हैं या विरक्त होने पर भी दुराग्रह से असर्वज्ञ के वचन को अन्तिम सत्य मानने वाले नहीं होते हैं। ऐसों को वैराग्य से भरे हुए तथा सर्वज्ञ-कथित अनेकांतादिमय वचन कैसे समझ में आ सकते हैं ?
(१३) नयभंग प्रमाण गमगहन : 'अहो जिनवचन नय भंग प्रमाण और गम से कितना गहन है ! कितना गंभीर !' नय' जो पहले बताये वे नैगमादि । यह सिर्फ जिनवचन की ही एक विशिष्टता है । अब भंग याने भांगा चतुभंगी सप्तभंगी