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में चारों गति के जोबों में भिन्न भिन्न वस्तु सोचने या विचार करने के लिए २४ भेद याने २४ दंडक किये। श्री तत्वार्थ शास्त्र में जीव के सम्यक्त्वादि वस्तु का विचार करने के लिए निर्देश स्वामित्व आदि तथा सत् संख्या क्षेत्र...आदि मुद्दे या द्वार बताये हैं। इसा तरह कर्मग्रन्थ शास्त्रों में जीव, गुणस्थान आदि का विचार करने के लिए गति-इन्द्रिय-काय.... आदि मार्गणाएं बताईं हैं। इसी तरह 'आवश्यक सूत्र' शास्त्र की उपोद्घात नियुक्ति में 'सामायिक' वस्तु का विचार करने के सिए उद्देश, निर्देश, निर्गम....आदि २६ द्वार बताये । ये दंडक, द्वार, सुद्दे, मार्गणा आदि सब अर्थ-मार्ग कहलाते हैं। शास्त्रों में ऐसे अन्य अनेक अर्थमार्ग कहे हुए हैं। यह भी मात्र जिनवचन को हो विशेषता है। अहो कसे गम्भीर गहन जिनवचन !
जिनेश्वर भगवान केवलज्ञान के प्रकाश से समस्त संशयरूपी अन्धकार का नाश करते हैं, अत: जगत के लिए दीपक समान हैं। उनके द्वारा जीवों को कुशल कार्य करने की आज्ञा दी जाती है अतः उनके वचन को जिनाज्ञा कहा जाता है। ऐसी जिनाज्ञा के उपरोक्त विशेषणों में से किसी भी विशेषण से, निराशंस भाव से, जिनाज्ञा का एकाग्र चिंतन करे वह पहले प्रकार का 'आज्ञाविचय' नामक धर्मध्यान हुआ।
इसमें ऐसा हो सकता है कि मंद बुद्धि के योग से या समझाने वाले वैसे आचार्य न मिलने पर या ज्ञेय की गहनता आदि के कारण कोई जिनवचन समझ में न आवे तो श्रद्धा डिगने की सम्भावना होने से और इसीलिए उक्त विशेषणों से जिनाज्ञा का ध्यान कठिन हो तो ऐसे कौन से कारण हैं और उस प्रसंग पर क्या करना चाहिये ? यह बताते हैं: