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तत्थ य'मइदोव्वलेणं 'तविहायरिय-विरहो वा वि ।
णेयगहणतणेण यणाणावरणोदएणं च ॥४७|| "हेऊदाहरणा संभवे य सइ सुटुं जं न बुज्झज्जा । सवण्णुभयमवितहं तहावि तं चिंतए मइमं ॥४८॥ अणुवकय पराणुग्गह-परायणा जं जिणा जगप्पवरा । जियरागदोसमोहा य णण्णहावादिणो तेणं ॥४९॥ ____ अर्थ:-(१) बुद्धि की सम्यक् अर्थविधारण की मंदता से, (२) सम्यक् यथार्थ तत्त्वप्रतिपादन करने वाले कुशल आचार्य के न मिलने से, (३) ज्ञेय पदार्थ की गहनता के कारण, (४) ज्ञानावरणीय कर्म का उदय होने से, या (५-६) हेतु या उदाहरण नहीं मिलने से इस जिनाज्ञा के विषय में यदि कुछ भी अच्छी तरह समझ में नहीं आवे तो भी बुद्धिमान पुरुष यही सोचे कि 'सर्वज्ञ तीर्थङ्करों का वचन असत्य हो ही नहीं सकता, क्योंकि चराचर जगत में श्रेष्ठ श्री जिनेश्वर भगवन्त, उन पर अन्यों ने उपकार नहीं किया हो तब भी, वैसे जीव पर उपकार करने में तत्पर होते हैं । उन्होंने राग-द्वेषमोह (अज्ञान) को जीत लिया है, इससे (असत्य बोलने के कारणों के ही नहीं होने से) वे अन्यथावादी याने असत्यभाषी हो ही नहीं सकते ।' विवेचन :
जिनवचन द्वारा कहे हुए पदार्थ कदाचित् समझ में न आवे तो किन कारणों से ऐसा होता है वह पहले बताते हैं :
जिन वचन के समझ न आने के ६ कारण १. मति दौर्बल्य-(मति की दुर्बलता) याने बुद्धि जड़