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(८) महत्थः 'अहो जिनवचन कैसा महत्थ !' यहां गाथा में आये हुए प्राकृत भाषा के ‘महत्थ' शब्द के 'महार्थ', 'महत्स्थ' तथा 'महास्थ' ऐसे तीन अर्थ निकलते हैं।
महार्थ याने प्रधान अर्थ वाला : जिनाज्ञा जिनवचन अर्थ प्रधान है। अन्य शास्त्रों से जिनागम के पदार्थ प्रधान होने का कारण यह है कि वह (क) पूर्व पर में विरोध रहित है। (ख) अनुयोग द्वारात्मक है और (ग) नयघटित है।
(क) जिनवचन में कहीं भी पूर्वापर में विरोध नहीं आदर शास्त्र के एक हिस्से में कुछ कहा हो और दूसरे हिस्से में उससे बिलकुल उलटा ही कहा हो, उसे पूर्वापर विरोधी कहा जायेगा। जैसे कि वेदों में पहले कहा है : ‘मा हिंस्यात् सर्वभूतानि' याने किसी की हिंसा नहीं करना । फिर आगे जा कर कहा, 'अश्वमेधेन यजेत' याने अश्वमेध (घोड़े की हिंसा वाला) यज्ञ करे। ऐसे पूर्वापर विरोधाभासी शब्द जिनागम में नहीं है। अत: उसके वचन कल्पित नहीं, पर सद्भूत हैं।
(ख) उपक्रमादि चार अनुयोगद्वारः जिनवचन अनुयोगद्वारात्मक है। "अनुयोग" याने व्याख्यान । उसके हेतुभूत सोपान को अनुयोगद्वार कहते हैं । जैसे 'आचार' नामक द्वादशांगी में प्रथम अंगसूत्र है उसका अनुयोग करना है तो उसके लिए पहले उसका उपक्रम फिर क्रमशः निक्षेप, अनुगम और नय-समन्वय किया जाता है।
'उपक्रम' याने निक्षेप के योग्य बनाना फिर उसका निक्षेप करना।
'निक्षेप' याने न्यास । वस्तु को उस नाम आदि में रखना। उदा० (१) 'आचार' ऐसा जब नाम दिया है तो वह 'आचार' उसका' नाम-निक्षेप कहा जाता है। अथवा नाम-निक्षेप से उसे 'आचार' कहते हैं । (२) आचार को कहीं चित्रादि में स्थापना की