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जच्चिा देहावत्था जियाण झाणोवरोहिणी होइ । भाइज्जा तदवत्थो ठिो निसण्णो निवण्णो वा ॥३९॥
अर्थः- कोई भी अभ्यास की हुई देह की अवस्था जो ध्यान के पीडा उत्पन्न करने वाली नहीं, उस अवस्था में रहकर ध्यान करे। चाहे खडे खडे काउस्सग्ग ध्यान से चाहे वीरासनादि में बैठकर या लंबे ह कर या सिकुडकर सोते हुए भी। से अमुक ही देश, स्थान, आदि का नियम नहीं; इसी तरह काल में भी अमुक समय हो ऐसा नियम नहीं, किन्तु इतना ही कि काल भी योग्य चाहिये, यह कहा है।
योग्य काल केसा? जहां योग का उत्तम समाधान मिले, योग की उत्तम स्वस्थता मिले, जिस समय मन वचन काया का व्यापार स्वस्थ हो उस समय ध्यान हो सकता है । यह काल दिन में हो वैसे ही रात्रि में भी हो सकता है । कोई भी मुहूर्त (याने दो घडी) आदि या दिन का पूर्व हिस्सा या पिछला हिस्सा भी हो सकता है। अमुक दिन ही या रात्रि ही या पूर्वान्ह ही, ऐसा कोई नियम नहीं । इस तरह तीर्थङ्कर देवों तथा गणधर देवों ने कहा है यह काल द्वार का विचार किया।
ध्यान का प्रासन : योग-समाधान ही ध्यान अब 'आसन विशेष' द्वार की व्याख्या करने के लिए कहते हैं:विवेचन : __ध्यान किस आसन से करना चाहिये ? इसके लिए भी यह नियम नहीं कि पद्मासन आदि से ही हो। किन्तु शरीर की जो अवस्था स्वयं को अभ्यस्त हो, जिसकी आदत पड़ गई हो या जो उचित हो, उस अवस्था में रह कर ध्यान किया जाय । अलबत्ता