________________
(१३०)) झाणप्पडिबलिकमो होइ मणोजोगनिगहाईयो । भवकाले केवलिणो, सेसाण जहा समाहीए ॥४४॥ • अर्थ- ध्यान प्राप्ति का क्रम ( मोक्ष मार्ग के अति निकट के ) संसार काल में केवलज्ञानी को मनोयोग निग्रह आदि होता है । अन्यों को स्वस्थानुसार ( होता है । )
से रचित सूत्र की वाचनादि का आलम्बन ले कर धर्मध्यान में चढं: जाता है। शुभ ध्यान में अपने मन से या पुरुषार्थ से ही चढा जता है किन्तु ऐसी वाचनादि श्रुतधर्म या सामायिकादि आवश्यक का आलम्बन नहीं करे तो धर्मध्यान में नहीं चढ सकता। आगैसा भवन में या लग्ने मण्डप में धर्मध्यान में चढ़े वे भी सूत्रोक्त शुभ चिंतन का आलम्बन कर के ही चढ़े। अत: ध्यान के लिए आलम्बन अति महत्त्व की वस्तु हैं । यह 'आलम्बन' द्वार कहा।
धर्म-शुक्ल-ध्यान में क्रम अब क्रम द्वार आता है। वह लाघव के लिए यानेः संक्षेप में पूर्ण हो इसलिए धर्मध्यान और शुक्लध्यान दोनों का क्रम बताते हुए कहते हैं:विवेचन : --ध्यान प्राप्ति का क्रम दो तरह से है:- (१) केवलज्ञानी महर्षि जब मोक्ष पाने के अति निकट के काल में अर्थात् अन्तिम शैलेशी अवस्था के अन्दर के अन्तर्मुहूर्त काल में आते हैं और वहां उन्हें शुक्ल ध्यान के अन्तिम दो चरणों का ध्यान करने का अवसर आता है तब वे पहले तो मनोयोग का निग्रह करते हैं फिर वचनयोग का निग्रह और फिर सूक्ष्म भी काययोग का निग्रह करते हैं ।