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(१) सुनिपुणः अर्थात् जिनाज्ञा का सुनिपुणता का ध्यान करे । जैसे-'अरे कैसा सुनिपुण जिन वचन ! जिन वचन से ही सूक्ष्म द्रव्य तथा सूक्ष्म पर्यायों तक का प्रतिपादन हुआ है। धर्मास्तिकायादि द्रव्य तथा पुद्गल द्रव्य में वर्गणाओं तथा जीव द्रव्य में निगोद याने जमीनकंद, लाल फूलन, आदि के एक एक कण में असंख्य शरीर तथा एक एक शरीर में अनन्तानंत जोव, फिर उन प्रत्येक जीव पर चिपके हुए कर्म के अनन्त स्कंध और उस प्रत्येक स्कंध में रहे
ए अनन्तानन्त परमाणु इत्यादि जीव अजीव सूक्ष्म द्रव्यों की पहचान सर्वज्ञ श्री जिनेश्वर देव के वचन सिवाय अन्य कौन बता सकता है ? इन प्रत्येक अणु के भी अनन्त स्वपर पर्याय, प्रत्येक कर्म स्कंध पर बंध, उदय, उदीरणा, संक्रमण उद्वर्तन आदि से होने वाली प्रक्रिया, उसमें भी संख्यात गुला, असंख्यात गुना और अनन्त गुना हानि वृद्धि से होने वाली षड्गुण हानि वृद्धि, इत्यादि पर्याय सूक्ष्मता जिनवचन से ही जानने को मिली है, तो जिनवचन को यह कैसी सुनिपुणता ! कैसी उत्कृष्ट कुशलता !
इसी तरह मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि पांच ज्ञान के भेद तथा उनके प्रभेद या अवान्तर प्रकार मात्र जिनवचन से ही पहचाने जाते हैं। उसमें फिर जिनवचन रूपी श्रुत की और श्रतज्ञान की निपुणता कैसी कि जिनेश्वरदेव को केवलज्ञान होने के बाद भी उस श्रुत द्वारा ही श्रुतज्ञान का तथा अन्य चारों ज्ञान का प्रकाश किया जाता है ! यह भी जिनवचन की कैसी सुनिपुणता ! इस तरह सुनिपुणता का ध्यान करे ।
(२) अनादि निधनः-अहो ! जिनवचन कैसा अनादि तथा निधन याने उत्पति व नाश रहित सदा स्थायी ! कैसा अनादिकाल से चला आने वाला तथा अनन्तकाल तक रहने वाला !