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सुनिउण मणाइणिहणं भूयहियं भूयभावण मणग्छ । " अमिय मजिय महत्थं महाणुभावं महाविसयं ॥४॥ झाइज्जा निरवज्जं जिणाणमाणं जगप्पईवाणं । अणि उणजणदुण्णेयं नय भंग प्रमाणगमगहणं । ४६।।
अर्थः-(जिनाज्ञा सूक्ष्म द्रव्यादि व मत्यादि का निरूपक होने से) यन्त निपुण, (द्रव्यादि की अपेक्षा स) अनादि अनन्त, जीव कल्याण रूप, (अनेकान्त बोधक), सत्य भावक, अनध्य अमूल्य, ( अथवा ऋणघ्न कर्म नाशक ) होने से । अथं से ) अपरिमित ( या अमृत क्योंकि मीठी, पथ्य, अथवा सजीव याने उपपत्ति क्षम), (अन्य वचनों से) अजित, प्रधान अर्थ वाली (अविसंवादी, अनुयोगद्वारात्मक, नय घटित होने से, (i) महार्थ, या (ii) महत्स्थ-बड़े समकितो जीवों में स्थित, या (iii) महास्थ = पूजा प्राप्त, महान अनुभाव प्रभाव सामर्थ्य वाली ( चौदपूर्वी सर्व लब्धि सम्पन्न होने से प्रधान तथा सर्वार्थ सिद्ध विमान और मोक्ष तक का कार्य करती होने से प्रभूत), महान विषय वाली, निरवद्य याने दोष पाप रहित, अनिपुण लोगों से दुर्जेय, तथा नयभंगी प्रमाणगम ( अर्थ मार्गों ) से गहन, ऐसी जगत के दीपक समान जिनेश्वर भगवन्त की आज्ञा का (निरवद्य) ध्यान करे। .
. वह धर्मध्यान और (ii) स्वतः ही पाप का आनन्द व निर्भयता रुके और इससे आर्त रौद्र ध्यान रुके।
(३) तो जीव की तीसरी कमी अहंत्व तथा क्षुद्रता है। ये भी जीव को सुख दुःख के प्रसंग आने पर दुर्ध्यान कराते हैं। इसके सामने निरहंकार और उमदा दिल खड़ा होता है जिससे अहंत्व क्षुद्रता स्वाभाविक ही रुक जाय । धर्मध्यान का तीसरा प्रकार