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( १२८ ) श्रतधर्म चारित्रधर्मः यह वाचना आदि प्रवृत्ति श्रत धर्म के अन्तर्गत गिनी जायगी। धर्म की आराधना दो प्रकार से करने की है। श्रत धर्म व चारित्र धर्म। धूत धर्म के रूप में वाचनादि प्रवृत्ति रखना चाहिये और चारित्र धर्म के रूप में अब जो कहेंगे वह सामायिकादि आवश्यकों का आचरण करना चाहिये ।
सामायिकादि में सामायिक, पडिलेहन आदि समस्त चक्रवाल समाचारी (साधु की) आती है । 'सामायिक' तो ऽसिद्ध है। सावध योगों का मन वचन काया से प्रतिज्ञापूर्वक त्याग करके राग द्वषादि रहित समभाव में आना सामायिक कहलाता है। इसमें स्वाध्याय ध्यान महाव्रत समिति गुप्ति का पालना आदि करना होता है ।
पडिलेहन में मुहपत्ति (मुखवस्त्रिका) का तथा वस्त्र, पात्र, वसति (स्थान) का प्रत्युपेक्षण प्रमार्जन करने का आता है जिससे कोई जीव-जन्तु मरे नहीं। इत्यादि समस्त चक्रवाल समाचारी का पालन ही ध्यान के लिए आलम्बन रूप होता है।
साधु जीवन में गुरु तथा गच्छ के साथ रहते हुए ‘इच्छाकार' अर्थात् दूसरे को कुछ काम बताना हो तो उसको वह करने की इच्छा पूछना चाहिये । 'मिच्छाकार' याने भूल होने पर मिथ्यादुष्कृत देना चाहिये । 'तहत्तिकार' याने गुरु वचन तुरन्त 'तहत्ति' (तथास्तु) कह कर स्वीकार करना, अपने स्थान या मन्दिर में घुसते व बाहर निकलते हुए 'निसिहि' या 'आवस्सही' कहना चाहिये। गोचरी (भिक्षा) जाते वक्त और आहार लाने के बाद मुनियों को 'छंदणा' (इच्छा) पूछना तथा 'निमंतणा' करना इत्यादि आचार का पालन करना चाहिये। इस तरह पांच समिति व तीन गुप्ति की प्रवत्तिये जिसमें ४७ दोष रहित गोचरी लाने व उसका उपयोग करने की प्रवत्ति भी भा जाती है। ये तथा दोनों समय के प्रतिक्रमण की