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( १२५ ) तो देसकाल चेट्ठा नियमो झाणस्स नत्थि समयंमि । जोगाणं समाहाणं जह होइ तहा जइयव्यं ॥४१॥
अर्थः -इसीलिए आगम में 'देश काल शरीर चेष्टा' आदि वही चाहिये, ऐसा नियम नहीं है। सिर्फ ( इतना ही नियम कि ) योगों को स्वस्थता जिस तरह रहे वैसा प्रयत्न करना चाहिये । हैं और उसके बिना ध्यान हो ही नहीं सकता ऐसा कहते हैं । तो यहां स्थान, काल या आसन का ऐसा काई नियम क्यों नहीं किया ? इसकी स्पष्टता करते हैं: विवेचन :
ध्यान के लिए देशकाल आसन का नियम नहीं बांधने का कारण यही है कि मूनि ढाई द्वीप के सभी स्थानों में, दिन व रात्रि के सभी समय में और किसी भी चेष्टा प्रवृत्ति या शरीर अवस्था में पाप का शमन करके (पाप नष्ट कर के ) केवलज्ञान आदि पा चुके हैं। केवलज्ञान की प्राप्ति ध्यान बिना तो हो ही नहीं सकती; क्यों कि कठोर तपस्या आदि करने से अमुक ढेरों कर्म नाश करने के बाद भी जो घाती कर्म के पाप बाकी रहते हैं उसे तोड़ने की ताकत एकमात्र ध्यान में है । तो चाहे जिस स्थान आदि में केवलज्ञान हुआ उसे ध्यान तो हुआ ही, तो फिर ध्यान के लिए अमुक ही स्थान आदि का नियम कहां रहा कि उसमें ही ध्यान हो सकता है ? ____ अकेला केवलज्ञान ही नहीं, पर अवधिज्ञान मनःपर्यवज्ञान आदि भी, ध्यान से पापों का शमन होने से, प्रकट होते हैं और यह ध्यान भो कईयों को अनियत अर्थात् अनिश्चित स्थानादि में होता रहा है। वह भी एक ही बार नहीं पर अनेक बार। यह सूचित करता है कि ध्यान के लिए अमुक ही देश काल या आसन हो ऐमा