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( ११२ ) हुआ ? एक आशंसा जाग उठी और निस्संगभाव दब गया। यदि साथ ही यह सोचा होता, 'यदि सब साधना निराशंस भाव से ही करना है तो मुझे किसलिए ऐसे तुच्छ फल की आशंसा करनी चाहिये ?' और ऐसा सोच कर निराशंसभाव टिका कर रखा होता तो ऐसा पतन नहीं होता।
ऐसा ही महावीर प्रभु के जीव विश्वभूति मुनि को हुआ। तीव्र वैराग्य से उन्होंने राजाशाही सुखों को छोड़कर चारित्र लिया, और उसके पालन में निस्संगभाव भी अच्छा प्राप्त किया। परन्तु चचेरे भाई के मजाक करने से अबादि के संस्कार वश अपमान लगा, मान उछला, एवं भवांतर में बल के मालिक होने की आशंसा खड़ी की और पतन हुआ।
आशसा रोकने के लिए इस प्रकार का निर्धार-निर्णय मन में खूब घोट रखना चाहिये कि 'धर्म के फलस्वरूप इस लोक या पर लोक के किसी पदार्थ की मुझे इच्छा ही नही करना चाहिये । अमूल्य धर्म को तुच्छ फल के खातिर तथा अविनाशी धर्म को नाशवन्त वस्तु के खातिर बेच डालना महीं है। क्योंकि इस तरह धर्म को बेच डालने से दोघं भावी काल के लिए धर्म के संस्कार ही नहीं रहेंगे। फिर भवांतर में धर्म ही नहीं रहा, तो पापी जीवन ही बना रहेगा; क्योंकि सांसारिक आशंसा से वासना रोग दृढ़ होगा।'
इस तरह निस्संगभाव के साथ ही निराशंसभाव को अवश्य खड़ा करना चाहिये । इससे मन वैराग्य से अच्छी तरह भावित होगा और ध्यान-भंग नहीं होगा। साथ ही शुभ ध्यान दुर्लभ नहीं होगा। अन्यथा आशंसा दिमाग को पकड़ लेगी तो शुभ ध्यान कहां से प्राप्त होगा ? या टिकेगा ? |
५. क्रोधादि रहितता-उपरोक्त गुणों का अभ्यास करने पर भी सम्भव है कि निमित्त मिलते ही या स्वभाव-दोष से