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पास में उसका बसना भी खराब है और उसका आना जाना या दृष्टि पथ मे पड़ना भी बुरा है । यह तो ब्रह्मचर्य की अपेक्षा से हुआ।
बाकी संयम-चारित्र को अपेक्षा से कुशीलाचारी का संपर्क भी /नि कर्ता है। उदा. जुआरी, शराबी, शराब बेचने वाला, परस्त्रीलपट आदि के सहवास में साधु रहे तो उनकी खराब बातें साधु के कान पर भ' पड़े या उनको यह कुशील प्रवृत्ति उसकी नजर में चढे और इससे उसके सयम भाव को धक्का लगे।
मुनि को अपने रहने के लिए भी जब स्त्री आदि से अलिप्त ऐसा एकान्त स्थान चाहिये, तो फिर ध्यान के लिए तो खास करके ऐसा स्थान आवश्यक है; क्योंकि ध्यान में तो जिनाज्ञादि किसी एक शुभ विषय पर मन को एकाग्र रखना जरूरी है । पुरुष साधु के लिए जैसे स्त्री सम्पर्क का त्याग वसे साध्वी के लिए पुरुष सम्पर्क का त्याग; एवं दोनों के लिए नपुंसक सम्पर्क का त्याग; यह यथायोग्य समझ लेना चाहिये । न्याय है : 'एक जातीय ग्रहणे तज्जातीय ग्रहणम्' अर्थात् एक प्रकार की कोई बात की हो तो उसमें उसी जाति या प्रकार की ओर वस्तु आ जाती है। अत: यहां जब मुनि की बात की तो उस पर से साध्वी को पुरुष के वास या संचार से रहित स्थान चाहिये, यह बात समझ लेने की ही है। यह स्त्री आदि से रहित स्थान की बात अपरिणत योगी के लिए हैं। क्यों कि उसे अभी योग का अभ्यास चलता है। अतः योग उसे परिणत अर्थात् आत्मसात् नहीं हआ। इससे बाधक तत्त्व हटाने का प्रयत्न चालू हो वहां तक योग अवस्था टिके अन्यथा योगभ्रष्ट होने का सम्भव है। अत : स्त्री आदि के सम्पर्क वाले स्थान में उनके लिए ध्यान की आराधना असम्भव है।
यह अपरिणत योगी के लिए ध्यान के स्थान की बात कही। अब परिणत योगी के बारे में विशेष वस्तु कहते हैं: