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( ११७ ) थिरकयजोगाणं पुण मुणीण झाणे सुनिच्चलमणाणं । गामंमि जणाइण्णे सुण्णे रपणे व, न विसेसो । ३६॥
अर्थ:-संघयण तथा धृतिबल वाले अभ्यस्त योगी, जीवादि पदार्थों का मनन करने वाले विद्वान, तथा धर्मध्यान में अत्यन्त निष्प्रकम्प मन वाले मुनि को तो लोगों से व्याप्त गांव में या शून्य स्थान में या जंगल में ( चाहे जहां ध्यान करे उसमें ) कोई फर्क नहीं पड़ता।
विवेचन :
परिणत योगी आदि के लिए ऐसे स्त्री आदि से रहित स्थान काही नियम नहीं है। परिणतयोगी याने जिसका शरीर संघयण मजबूत है और जिनका धृति-धैर्य भी स्थिर है तथा जो कृतयोगी हैं।
कृतयोगी–अर्थात् कृत याने अच्छी तरह अभ्यस्त हैं योग जिन्हें वे।
योग याने पूर्व कथित ज्ञान-भावना, दर्शन-भावना आदि भावित करने की प्रवृत्ति, अथवा जिनकल्पिकादि मुनिपन प्राप्त क ने के लिए पहले जो सत्त्व भावना, सूत्र भावना तथा तप भावना आदि का अभ्यास करना चाहिये वही।
सत्भावना में-स्मशान जैसे में भी अकेले निर्भीकता से रात भर 'कायोत्सर्ग ध्यान में रहने के सत्त्व का अभ्यास करना होता है। सूत्र भावना में सूत्र को परावर्तन ( पुनरावर्तन ) करके इतना परिचित करना होता है कि कितने सूत्र स्वाध्याय में कितना समय गया, इसका पता चल जाय। इतना स्पष्ट अक्षर से तथा व्यवस्थित समय से चलने वाले सूत्र अर्थ के परावर्तन का अभ्यास किया जाता है। तपभावना में तप के ऐसे बल का