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तथा सर्वज्ञ-वचन पर अटूट श्रद्धा खड़ी कर रखी हो तो तीसरा दिशामोह विघ्न जैसा मतिमोह विघ्न रुकावट नहीं कर सकता। मतिमोह उठने लगे ता तुरन्त वह तात्त्विक समझ और सर्वज्ञ-श्रद्धा उसे उड़ा दे। इस तरह तीनों प्रकार के विघ्नों के सामने अच्छा सा प्रतीकार खड़ा हो गया हो तो फिर विघ्न का भय रखने का क्या कारण है ? इस तरह सोच कर निर्भयता खड़ी करनी चाहिये ।
.. वैसे आयुष्य पूर्ण हो जाने से उन्नतिसाधक साधना अधुरी रह जाने का डर भी बेकार है; क्योंकि (१) ऐसे भय से कुछ सुधरता नहीं है, बल्कि भविष्य के भय से जकड़ा हुआ मन वर्तमान साधना में जोरदार रूप से पकड़ा नहीं जाता। (२) फिर कदाचित् आयुष्य जल्दी पूर्ण हो ज ने से साधना अधुरी रह गई तो भी क्या बिगड़ा ? यों तो थोडा ज्यादा जीने से भी यह साधना वीतरागता प्राप्त करवा. कर थोड़े ही पूर्ण होने वाली थी ! अधूरी तो रहती ही। हां, थोड़ी ज्यादा साधना हो जाती। परन्तु इसमें भी यह देखने का है कि जैन शासन में विशेष महत्त्व आभ्यन्तर साधना का और साधना के प्रमाण से भी साधना के जोश, वेग तथा तन्मयता का है। ऐसे ही महत्त्व अन्तिम काल की साधना का है। अत: थोड़े समय की भी साधना आश्यन्तर परिणति से जोशीली जोरदार बन जाय, यह महत्त्व का है, और वह दूसरे तीसरे भय न रखने से होती है । इससे ही अन्तिम समय में भी साधना में मन तन्मय हो जाने पर उच्च फल मिलता है, जिससे आगे के भव में विशेष ऊंची साधना प्राप्त होती है। यह सोच कर साधना अधुरी रहने का भय भी नहीं रखना चाहिये।
तो कभी साधना में पीछे हटना पड़े तो? यह भय भी बेकार है। क्योंकि इस भय में आत्मविश्वास की तथा अपने सत्त्व की दुर्बलता साबित होती है। यदि मजबूत आत्मविश्वास हो तो मन को ऐसा