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दृष्टि से अनिंद्य बर्ताव जिस प्रकार के क्षयोपशम से होता है, उस क्षयोपशम को चरित्र या चारित्र कहते हैं : प्रत्याख्यातावरण नामक तीसरे क्रोध, मान, माया, लोभ कषायों की चौकड़ी का जब क्षयोपशम किया जाय, तो इससे वेध लोभादि कर्म के विपाक याने उदय रुक जाते हैं. तभी आत्मा सचमुच में सर्व विरति भाव में आता है। उसके कारण बाद में वे क्रोधादि कषाय तथा हिंसादि अविरति के योग से जो निंद्य वाणी विचार या बर्ताव चलता था, वह रुक जाता है और क्षमादि १० यति धर्म के तथा ज्ञानाचारादि पंचाचार के प्रशस्त वाणो, विचार तथा बर्ताव चलते हैं। इस चारित्र का अभ्यास किया जाय, उसका नाम चारित्र भावना। इससे आत्मा ऐसा भावित हो जाता है, ऐसा रंग जाता है कि फिर वह सुखपूर्वक ध्यान कर सकता है।
चारित्र जीवन में तीन वस्तुएँ हैं । (१) आश्रवों का रुकन।। (२) बारह प्रकार के तप का सेवन । और (३) समिति गुप्ति आदि शुभ प्रवृत्ति ।
इससे तीन प्रकार के फल उत्पन्न होते हैं (१) आश्रव निरोध से नये कर्मों का बंध रुक जाता है। (२) तप सेवन से पूर्व बद्ध ढेरों कर्मों की निर्जरा होती है, क्षय होता है और (३) शुभ प्रवृत्ति से नये शाता यश आदि शुभ कर्मों का उपार्जन होता है । इसका परिणाम यह होगा कि कर्मभार कम होगा, नया नहीं बढेगा और जो पुण्य बढेगा वह भविष्य के लिए आराधना की जोरदार सामग्री जैसे उत्तम भव, सबल पवित्र मन, अ.दि प्राप्त करवाने वाला बनता है। इससे वहाँ उच्च आराधना द्वारा पुनः कई कर्मों के भार को हलका या कम किया जा सकेगा। इसी तरह सर्व कर्म नाश की ओर तीव्र गति से प्रयाण होता है।
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